दिविक रमेश साहित्य Hindi Literature Collections

कुल रचनाएँ: 19

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दिविक रमेश की चार कविताएँ

सुनहरी पृथ्वी
सूरजरातभरमांजता रहता हैकाली पृथ्वी को
तब जाकर कहींसुनहरीहो पाती है पृथ्वी।
 
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पूरा आदमी
आकाशचीख नहीं सकताहमचीख सकते हैं आकाश में।
कोईक्या चीख सकता हैहम में ?
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नहर
नदीनहर होकरमेरे गाँव आयी
नहरफिर भीनदीन हो पायी।
 
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रिश्ता - ठीक वही रिश्ता
न...

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माँ गाँव में है

चाहता थाआ बसे माँ भीयहाँ, इस शहर में।
पर माँ चाहती थीआए गाँव भी थोड़ा साथ मेंजो न शहर को मंजूर था न मुझे ही।
न आ सका गाँवन आ सकी माँ हीशहर में।
और गाँवमैं क्या करता जाकर!
पर देखता हूँकुछ गाँव तो आज भी ज़रूर हैदेह के किसी भीतरी भाग मेंइधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका।
माँ आतीबिना किए घोषणातो थोड़ा...

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सोचेगी कभी भाषा

जिसे रौंदा है जब चाहा तबजिसका किया है दुरूपयोग, सबसे ज़्यादा।जब चाहा तबनिकाल फेंका जिसे बाहर।कितना तो जुतियाया है जिसेप्रकोप में, प्रलोभ मेंवह तुम्हीं हो न भाषा।
तुम्हीं हो नसहकर बलात्कार से भी ज़्यादारह जाती हो मूकसोचो भाषा -रह जाती हो मूकजबकि सम्पदा हैशब्दों की, अर्थों की -रह जाती हो मूक।
और ...

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माँ

रोज़ सुबह, मुँह-अंधेरेदूध बिलोने से पहलेमाँचक्की पीसती,और मैंघुमेड़े मेंआराम सेसोता।
-तारीफ़ों में बंधीमांँजिसे मैंने कभीसोतेनहीं देखा।
आजजवान होने परएक प्रश्न घुमड़ आया है--पिसतीचक्की थीया माँ?
- दिविक रमेश

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छुट्कल मुट्कल बाल कविताएं

दिविक रमेश की बाल कविताएं।

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बन जाती हूं

चींचीं चींचींकर के तो मैंचिड़िया तो नहींबन जाती हूं।
चूंचूं चूंचूंकरके तो मैंचूहा तो नहींबन जाती हूं।
मेंमें मेंमेंकरके तो मैंबकरी तो नहींबन जाती हूं।
पर सीख करअच्छी बातेंअच्छी लड़कीबन जाती हूं।
-दिविक रमेश
 

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दो बच्चे 

एक बच्चा खेल रहा है दूसरा खिला रहा है। 
एक ले रहा है मजा, दूसरा घर चला रहा है।
-दिविक रमेश

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जिद्दी मक्खी

कितनी जिद्दी हो तुम मक्खीअभी उड़ाती फिर आ जाती!हां मैं भी करती हूं लेकिनमां मनाती झट मन जाती।
मां तेरी समझाती होगीजॆसे मां मेरी समझाती ।जो बच्चे होते हॆं जिद्दीउनको अक्ल कभी ना आती।
अगर स्कूल तुम जाती होतीतुम भी समझदार बन जाती।अच्छी-अच्छी बातें कितनीटीचर जी तुमको समझाती!
-दिविक रमेश

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जब बांधूंगा उनको राखी

माँ मुझको अच्छा लगता जबमुझे बांधती दीदी राखीतुम कहती जो रक्षा करताउसे बांधते हैं सब राखी।
तो माँ दीदी भी तो मेरीहर दम देखो रक्षा करतीजहां मैं चाहूं हाथ पकड़ करवहीं मुझे ले जाया करती।
मैं भी माँ दीदी को अब तोबांधूंगा प्यारी सी राखीकितना प्यार करेगी दीदीजब बांधूंगा उनको राखी!
-दिविक रमेश
 

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मेरी बॉल

अरे क्या सचमुच गुम हो गईमेरी प्यारी-प्यारी बॉल?कहां न जाने रखकर मैं तोभूल गई हूं अपनी बॉल!
यहां भी देखा वहां भी देखामिली नहीं पर मेरी बॉल!उछल उछल कर मुझे हंसातीकितनी अच्छी थी न बॉल!
पकड़ के लाता दौड़ के पप्पीदूर फेंकती थी जब बॉल।कहां न जाने रखकर मैं तोभूल गई हूं अपनी बॉल।
मां बोली तू बड़ी भुलक्कड़...

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शब्द शब्द जैसे हों फूल

अच्छी पुस्तक बगिया जैसीहोती है मुझको तो लगता।कविता और कहानी उसमेंहों पौधे ज्यों ऐसा लगता।
वाक्य लगते ज्यों टहनियांशब्द शब्द जैसे हों फूल।और अर्थ लगें ज्यों खुशबूसूंघ सूंघ मन जाता झूल।
अरे कहानी में गंदे जोवे तो लगते बिलकुल शूल।उनको तो पढ़ते ही लगताभैया जाएं जल्दी भूल।
-दिविक रमेश

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आओ चलें घूम लें हम भी

छुट्टियों के आने से पहलेहम तो लगते खूब झूमने।कह देते मम्मी-पापा सेचलो चलो न चलो घूमने।
बहुत मज़ा आता है जब जबहमें घूमने को है मिलता।कभी इधर तो कभी उधर हमचलें घूमने मन यह करता।
कभी करे मन गांव चलें हमफसलें जहां मस्त लहरातीं।हरे भरे पेड़ों पर बैठींझूम झूम चिड़ियां हों गातीं।
कभी करे मन जाकर दिल्लीम...

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आओ महीनो आओ घर | बाल कविता

अपनी अपनी ले सौगातेंआओ महीनों आओ घर।दूर दूर से मत ललचाओआओ महीनों आओ घर।
थामें नए साल का झंडाआई आई अरे जनवरी।ले गोद गणतंत्र दिवस कोलाई खुशियां अरे जनवरी।
सबसे नन्हा माह फरवरीफूलों से सजधज कर आता।मार्च महीना होली लेकररंगभरी पिचकारी लाता।
माह अप्रैल बड़ा ही नॉटीआकर सबको खूब हँसाता।चुपके चुपके आकर ...

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खेल महीनों का | बाल कविता

अच्छी लगती हमें जनवरीनया वर्ष लेकर है आती।ज़रा बताओ हमें फरवरीकैसे इतने फूल खिलाती।
ज़रा बताना हमको भी तोमार्च गर्म क्यों होने लगता?आते ही अप्रैल हमें क्योछुट्टियों का सा मौसम लगता?
मई-जून पर कैसे हैं जीजा पहाड़ हो जाते ठंडे।पर दिल्ली-कलकत्ता आकरबरसाते गर्मी के डंडे।
जुलाई-अगस्त महीनों मेंसब कुछ ...

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डर भी पर लगता तो है न | बाल कविता

चटख मसाले और अचारकितना मुझको इनसे प्यार!नहीं कराओ इनकी याददेखो देखो टपकी लार।
माँ कहती पर थोड़ा खाओहो जाओगी तुम बीमारक्या करूं पर जी करता हॆखाती जाऊं खूब अचार।
पर डर भी लगता तो है नसचमुच पड़ी अगर बीमारडॉक्टर जी कहीं पकड़ कर ठोक न दें सूई दो-चार
-दिविक रमेश
[Children's Hindi Poems by Divik Ram...

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कितना अच्छा होता न तब | बाल कविता

सब कहीं ले जा सकते हम!कितना अच्छा होता न तब?
और समुद्र सिर पर ढ़ोकरसब कहीं ले जा सकते हम!कितना अच्छा होता न तब?
अगर स्कूलों को रहड़ा करसब कहीं ले जा सकते हम!कितना अच्छा होता न तब?
जो कुछ भी है इस धरती काअगर सभी का कर सकते हम!कितना अच्छा होता न तब?
पर कितने छोटू हैं हम तोहाथ भी देखो कितने छो...

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मैं पढ़ता दीदी भी पढ़ती | बाल कविता

कभी कभी मन में आता हैक्यों माँ दीदी को ही कहतीसाग बनाओ, रोटी पोओ ?
कभी कभी मन में आता हॆक्यों माँ दीदी को ही कहतीकपड़े धोलो, झाड़ू दे लो ?
कभी कभी मन में आता हॆक्या मैं सीख नहीं सकता हूंसाग बनाना, रोटी पोना?
कभी कभी मन में आता हैक्या मैं सीख नहीं सकता हूँकपड़े धोना, झाडू देना ?
मैं पढ़ता दीदी...

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दीदी को बतलाऊंगी मैं | बाल कविता

बड़ी हो गई अब यह छोड़ोनानी गाय, कबूतर उल्लूअरे चलाती मैं कम्प्यूटरमत कहना अब मुझको लल्लू ।
छोटे स्कूल नहीं  अब जानाबड़े स्कूल अब जाऊंगी मैंपापा-मम्मी नहीं रोकनासाइकिल भी चलाऊंगी मैं ।
बड़ा मज़ा आएगा 'वाव'पानी-पूरी खाऊंगी मैंनहीं लगेगी अब तो मिर्चीदीदी को बतलाऊंगी मैं । 
-दिविक रमेश[छ...

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डर भी पर लगता तो है न

चटख मसाले और अचारकितना मुझको इनसे प्यार!नहीं कराओ  इनकी   याददेखो  देखो  टपकी  लार।
माँ कहती पर थोड़ा  खाओहो   जाओगी  तुम बीमारक्या करूं पर जी करता हैखाती  जाऊं  खूब  अचार।
पर डर भी लगता तो है नसचमुच पड़ी  अगर बीमारडॉक्टर जी कहीं पकड़ ...

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दिविक रमेश का जीवन परिचय