कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है।
मुक़ाम पर पहुँचते ही लिवाने आ जाते हैं शब्द दिमाग का सारा ज़रूरी, गैर ज़रूरी सामानरख देते हैं कल्पना की गाड़ी में।घूमती हूँ मन की सँकरी-चौड़ी सड़कों परदरवाज़े पर ही खड़ी होती हैहँसती-मुस्कुराती कवितावह माँ होती है मेरे लिए।
जब लौटती हूँतो सारे गैर ज़रू...
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