चलों चलें उस पार झर झर करते झरने हों जहाँ बहती हो नदिया की धारा जीवन के चंद पल हों अपने कर लें हम प्रकृति से प्यार
क्या रखा परदों के पीछे चार दीवारी के चेहरे हैं न प्रभात की लाली दिखतीन सिंदूरी साँझ के तार
सीमित और सँगीन महल ये अंधेरी हर मन की नगरी कैसी ये हिलजुल चिलमन की थक गईं पलकें पँथ निहार...
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