आज तीसरा रोज़ है। तीसरा नहीं, चौथा रोज़ है। वह इतवार की छुट्टी का दिन था। सबेरे उठा और कमरे से बाहर की ओर झांका तो देखता हूं, मुहल्ले के एक मकान की छत पर कांओं-कांओं करते हुए कौओं से घिरी हुई एक लड़की खड़ी है। खड़ी-खड़ी बुला रही है, "कौओ आओ, कौओ आओ।" कौए बहुत काफ़ी आ चुके हैं, पर और भी आते-जाते ह...
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