विजय कुमार सिंघल साहित्य Hindi Literature Collections

कुल रचनाएँ: 6

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अपनी छत को | ग़ज़ल

अपनी छत को उनके महलों की मीनारें निगल गयीं धूप हमारे हिस्से की ऊँची  दीवारें निगल गयीं
अपने पाँवों  के छालों के नीचे हैं ज़ख्मी  फुटपाथ शानदार सड़कों को उनकी चौड़ी कारें निगल गयीं
क़त्ल हुए अरमान हमारे जुल्म के वहशी हाथों से अपने सब अधिकारों को उनकी तलवारें निगल गय...

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झेप अपनी मिटाने निकले हैं

झेप अपनी मिटाने निकले हैंफिर किसी को चिढ़ाने निकले हैं
ऊब कर आदमी की बस्ती सेटहलने के बहाने निकले हैं
शुक्र है अपनी अंधी  बस्ती मेंचंद हज़रात काने निकले हैं
पोंछ कर अश्क बंद कमरे मेंआज फिर मुस्कराने निकले हैं
सूदखोरों की एक अमानत हैं खेत से जितने दाने निकले हैं
जिसका...

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दर्द की सारी लकीरों.... | ग़ज़ल 

दर्द की सारी लकीरों को छुपाया जाएगाउनकी ख़ातिर आज हर चेहरा सजाया जाएगा
सच तो यह है सब के सब लेंगे दिमाग़ों से ही काममामला दिल का वहां यूँ तों उठाया जाएगा
हो ही जाएगा किसी दिन मुझसे मेरा सामना ख़ुद को ख़ुद से कितने दिन आखिर बचाया जाएगा
हम ग़लत लोगों को हरगिज़ ठीक कह सकते नहीं गो ...

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इसको ख़ुदा बनाकर | ग़ज़ल

इसको ख़ुदा बनाकर उसको खुदा बनाकर क्यों लोग चल रहे हैं बैसाखियां लगाकर
दो टूक बात कहना आदत-सी हो गई है हम उनसे बात करते कैसे घुमा-फिराकर
चेहरों का एक जमघट आंखों के सामने है हम कैसे भाग जाएं सबसे नज़र बचाकर
जो तुझ को देके गाली हरदम पुकारता है कहता है कौन तुझसे उसके लिए दुआ कर
बाहर की ...

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बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से

बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से इस दुनिया के लोग बना लेते हैं परबत राई से।
सबसे ये कहते थे फिरते थे मोती लेकर लौटेंगेमिट्टी लेकर लोटे हैं हम सागर की गहराई से।
नाहक सोच रहे हो तुमपर असर ना होगा औरों काचाँद भी काला पड़ जाता है धरती की परछाई से।
इससे ज्यादा वक्त बुरा क्या गुजरेगा इंसानों...

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जंगल-जंगल ढूँढ रहा है | ग़ज़ल

जंगल-जंगल ढूँढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी कोकितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को
इसको भावशून्यता कहिये चाहे कहिये निर्बलतानाम कोई भी दे सकते हैं आप मेरी मजदूरी को
सम्बंधों के वो सारे पुल क्या जाने कब टूट गएजो अकसर कम कर देते थे मन से मन की दूरी को
दोष कोई सिर पर मढ़ देंगे झूठे किस्से गढ...

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विजय कुमार सिंघल का जीवन परिचय