वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi साहित्य Hindi Literature Collections

कुल रचनाएँ: 5

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ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है | ग़ज़ल

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता हैसमन्दरों ही के लहजे में बात करता है
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होतेकोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहींकिसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फिर नहीं चलतीजब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है
तुम आ गय...

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वसीम बरेलवी की ग़ज़ल

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगाअब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगाढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊंगाकोई चराग नही हूँ जो फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिएजो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
हज़ा...

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खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं

खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहींऔर मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं
वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगाउसको मेरी प्यास की *शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं
जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है, ग़रूर तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं
कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ देमेरे हाथों में ...

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वो मेरे घर नहीं आता

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअ'ल्लुक़ मर नहीं जाता
बुरे अच्छे हों जैसे भी हों सब रिश्ते यहीं के हैं किसी को साथ दुनिया से कोई ले कर नहीं जाता
घरों की तर्बियत क्या आ गई टी-वी के हाथों में कोई बच्चा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता
खुले थे शहर में सौ दर मगर इक हद क...

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कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है

कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती हैये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे, देख न पाए दुनियादिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जानेकैसे माँ-बाप के होंठों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाए हुए चलने का अज़ाबजैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान म...

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वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi का जीवन परिचय