हरि सिंह सरकारी सेवा में जब से नियुक्त हुए तब से लेकर आज तक वे देहात के छोटे-बड़े सभी पोस्ट ऑफिसों में जाकर वहाँ के कार्य को परख चुके हैं। आज दस साल हो गए हैं, वे कटक सदर पोस्ट ऑफिस में कार्य कर रहे हैं। उत्तम कार्य के लिए उन्नति भी हुई है। इस समय वे प्रधान पोस्ट पिअन है और नौ रुपया मासिक वेतन है। कटक शहर में हर एक वस्तु खरीदने पर मिलती है। जरा-सी आग के लिए यदि दिवासलाई न खरीदें तो काम नहीं चलेगा। कतरब्यौंत से चलने पर भी मासिक पाँच रुपए से कम में गुजारा नहीं होता। मासिक चार रुपए घर न भेजें तो काम नहीं चल सकता। घर में पत्नी और आठ साल का लड़का गोपाल है। देहाती जगह, किसी तरह कतरब्यौंत से चार रुपए में गुजारा हो ही जाता है। उसमें से एक पैसा भी कम हो तो चलना मुश्किल है। गोपाल अपर प्राइमरी स्कूल में पढ़ता है। स्कूल फीस मासिक दो आना है। फीस के अलावा आज पुस्तक तो कल स्लेट, कागज आदि चीजें खरीदने में खर्च करना पड़ता है। इस प्रकार के ऊपरी खर्च बढ़ जाने पर उस मास में बहुत कष्ट होता है। बूढ़े को कभी-कभी उपवास भी करना पड़ता है। लक्ष्य होता है "मैं उपवास भले ही करूं लेकिन गोपाल पढ़े।"

पोस्टमास्टर ने सर्विस बुक देखकर एक रोज कहा—'हरि सिंह तुम्हारी उमर पचपन वय की हो गई है। अब पेन्शन लेनी होगी। नौकरी अब नहीं कर पाओगे। हरि सिंह के सिर पर मानो वज्रपात हो गया। क्या करें, घर संसार कैसे चलेगा?  घर संसार को छोड़ो, गोपाल की पढ़ाई कैसे चलेगी? गोपाल के जन्म ही से सिंह जी ने मन में बहुत ही उच्च इच्छा पाल रखी है। 'गोपाल देहात के सब पोस्ट आफिस में पोस्टमास्टर बनेगा।' पर थोड़े से अंग्रेजी ज्ञान के बिना इतनी बड़ी नौकरी मिलनी मुश्किल है। देहात में अंग्रेजी पढ़ाई की सुविधा नहीं है। सो कटक लाकर अंग्रेजी पढ़ाना होगा। नौकरी के चले जाने पर इतनी बड़ी आशा बिखर जाएगी। इन्हीं बातों को सोच-सोचकर काँटा हो गए। कभी-कभी रात भर नींद नहीं आती। इन्हीं बातों को सोचते-सोचते उनींदे रात बीत जाती है।

सिंह जी पर पोस्टमास्टर की काफ़ी मेहरबानी है। उनके यहाँ नौकर के होते हुए भी सिंह जी आफिस का काम निपटाकर शाम को बाबू के यहाँ दो-चार काम कर ही देते हैं। शाम के समय आरामकुर्सी पर बैठकर जब बाबू अँग्रेजी अखबार पढ़ने लगते है उस समय सिंह जी मीठी कड़वी चिलम सुलगा देता है किसी को मालूम नहीं। एक शाम सिंह ने बढ़िया चिलम भर कर बड़े यत्न से चिलम को फूंका। इंजन की चिमनी के समान बाबू के मुख से धुआँ भकभक निकलने लगा। बाबू को कुछ झपकी-सी आने लगी। सिंह समझ गया, यही ठीक समय है। सिंह बाबू के पैर के नीचे लंबायमान हो हाथ जोड़कर शक्ति से, विनय से, धीरे, मधुर स्वर में उसने अपना हाल बताया, 'गोपाल को लेकर मन में जो उच्च आशा पाले हुए था उसे भी कहना नहीं भूला। बाबू उसी प्रकार आंखें मूंदे हुए धीरे गंभीर स्वर में बोले, 'एक दरखास्त लिखकर लाओ' । बाबू में इतना साहस था, कारण पोस्टल इन्सपेक्टर या सुपरिटेंडेंट आदि आने पर उन्हीं के यहां रहते थे। उच्च पदस्थ हाकिमों की सन्तुष्टि के लिए खान-पान आदि जैसा आयोजन होना चाहिए। उसमें उनसे कभी भूल नहीं होती। उस रात पोस्टमास्टर बाबू 'हरि सिंह, हरि सिंह,' कहकर बार-बार पुकारते। हरि सिंह पुराना आदमी है। कई हाकिम हुकमा का राज देख चुका है। किसका कैसा मिजाज है, कौन किससे खुश है, सब यह जानता है। उस समय आधी रात तक हरि सिंह को बाबू के यहाँ रहना पड़ता है। कारण उड़ीसा की गंदी आबहवा के कारण यदि कोई हाकिम हुकूम हठात् पीड़ित हो उलटी करते तो हरि सिंह सोड़ा, कागजी नींबू आदि सामयिक वस्तुएँ हाजिर कर उनको सम्हाल लिया करता। बाबुओं के आराम से सोने पर ही आधी रात को घर पहुंच अपने लिए खाना पकाता। अतएव एक प्रकार से सिंह जी ऊपर के हाकिमों से परिचित हैं।

हरि सिंह की दरखास्त पर बाबू ने बढ़िया सिफारिश लिखकर सदर भेज दिया, कुछ ही दिनों के बाद काम करने की अवधि का आदेश मिल गया। सिंह बहुत ही खुश हुआ और इस खुशखबरी को गाँव लिखकर भेज दिया। वर्तमान को ही सर्वस्व समझने वाले लोग उपस्थित सुख या दुख से मुग्ध हो जाते हैं। भविष्य में विधाता ने आगे उनके लिए कौनसा विधान रच रखा है उस ओर एकबार भी वे देखना नहीं चाहते। सिंह का इतना बड़ा आंनद पानी के बुलबुले के समान फट गया। घर से चिट्ठी मिली, गोपाल की माँ को सन्निपात हो गया है, बचने की आशा नहीं है। सिंह ने चि‌ट्ठी पोस्टमास्टर बाबू को दिखाई। बाबू बड़े ही दयालु थे तो उसी समय छु‌ट्टी मंजूर हो गई। सिंह आतुरता के साथ दौड़े, घर पहुंच कर जो दृश्य उन्होंने देखा उससे आंखों की ज्योति छिन गई। सारा संसार अन्धकारमय लगा। बूड़ी की अवस्था मृतप्राय थी। स्वामी को क्षीण नजरों से गौर से देखा, दोनों हाथ थोड़ा उठाकर प्रणाम किया और स्वामी की चरण रज पाने के लिए इशारा किया। मानों सिंह की चरण रज के लिए ही वह मार्ग तकती बैठी थी। सब शेष हो गया। सिंह का पैतृक निवास समाप्त हो गया। घर के दो-चार असबाब बेचकर गोपाल के साथ वह कटक  आ गया।

गोपाल माइनर में पढ़ता है। सिंह पेन्शन पा चुका है। वर्तमान बहुत ही कष्टकर और अचल अवस्था है। घर में जो दो-चार लोटा काँसा आदि बर्तन थे उसी को बेचकर गुजारा कर रहे हैं। नौकरी करते समय दो-चार आना करके सेविंग्स बैंक में रखा था। उसे भी गोपाल के माइनर की पढ़ाई में अर्पण कर दिया है। सिंह की प्रबल आशा है गोपाल के पास होने पर सब कष्ट मिट जाएँगे। गोपाल भी कई बार भरोसा देते हुए कह चुका है—'पिता जी मांग-उधार करके मुझे पढ़ाइए, नौकरी करने पर मैं सब चुका दूंगा।'

हरि सिंह की आर्त प्रार्थना दीनबंधु भगवान ने भी सुन ली। गोपाल माइनर पास हो गया। सिंह के आंनद की सीमा न रही। वही पुराने पोस्टमास्टर बाबू है, उन्हीं से सिंह ने बहुत निवेदन किया। ऊपर के हाकिमों का भी कुछ अनुग्रह था। 20 रु० महीना के वेतन पर गोपाल देहात मक्रामपुर के पोस्ट ऑफिस में सब-पोस्टमास्टर नियुक्त हो गया। वर्तमान सदर पोस्ट ऑफिस में चार महीने काम सीख कर फिर देहात जाएगा।

हरि सिंह के आनंद की सीमा नहीं रही। हमेशा प्रभु के प्रति सिर झुका कर कहता 'धन्य प्रभु तुम्हारी करुणा, तुमने मुझ दुःखी की गुहार सुन ली। जिस दिन नौकरी की खबर सुनी उस रात बूढ़ा सिंह बहुत रोया। हाय, आज बूढ़ी होती तो कितनी खुश होती। गोपाल ने हाकिम की नौकरी पाई है, आज तो वह आनंद में लोट-पोट हो जाती। हाय! अभागिन के भाग्य में देखना बदा नहीं था। जो हो, गोपाल तो हाकिम हो गया। प्रभु गोपाल की रक्षा करें।

गोपाल ने पहले माह की तनखाह पाते ही बूढ़े के हाथ में रख दी। बूढ़े के आंनद की कौन कहे, जमीन पर पाँव नहीं पड़ते थे। लड़का हाकिम है, इतना सारा रुपया माह के भीतर ले आया। बूढ़ा चार-पाँच बार गिनकर रुपयों को कमर में खोंस कर सो गया। दूसरे दिन सुबह होते ही झटपट बाजार की ओर दौड़ा। जूता, कुरता कपड़ा आदि जरूरी चीजें खरीद लाया। गोपाल हाकिम हो गया है, क्या ऐसे वैसे कपड़े पहनेगा? वेश देखकर भीख मिलती है। पद के समान पोशाक की जरूरत होती है।
गोपाल ऑफिस में चार-पाँच बाबुओं के साथ बैठकर अँग्रेजी में लिखता है। हमेशा बाबुओं से कारबार रहता है। लोग बुलाते हैं, 'डाक मुन्शी बाबू' वैसे नाम है गोपालचंद्र सिंह। घर पहुंच कर देखता कि बूढ़ा धूल-धूसर कपड़ा पहन कर काम में लगा है। 'गोपाल कैसे दो कौर अच्छा खाए, गोपाल नहा-धोकर गया है, गीले कपड़े सूखे नहीं है, बिचारा। लड़का काम करते-करते व्यस्त हो गया होगा' आदि बातों से बूढ़ा चिंतित रहता। पहले बूढ़ा समय-समय पर हरि नाम भजन करता था। कुछ धर्म-कर्म भी करता था। अब गोपाल बाबू के लिए सब कुछ भूल बैठा है। हम समझते हैं शायद हरि भी बूढ़े के इस काम को देखकर नाराज हो गए हैं। 

उन्होंने धमकाकर बूढ़े से कहा- अरे निर्बोध, यह क्या है रे, अच्छा बाद में समझेंगे।

इस बीच गोपाल बाबू के हाव-भाव में कुछ परिवर्तन नजर आने लगा है। अब पिता को देखते ही अकारण नाराज होते हैं। यह मूर्ख है, अंग्रेजी जानता नहीं है। मजदूर-सा मैले कपड़े पहनता है। इसे पिता कहकर बुलाऊंगा? लोग क्या कहेंगे? उस दिन कई स्त्रियां शमीज पोशाक आदि पहन कर खड़ी थीं, बूढ़ा नंगे बदन उनके सामने से निकल गया। छीः छीः, कितनी लज्जा की बात है। इसे घर से निकाले बिना इज्जत बचाना मुश्किल है।

एक रोज डाक मुंशी बाबू पिता से बोले- 'तुमने मेरा कोई उपकार नहीं किया है इच्छा हो तो घर में रहो अन्यथा घर छोड़कर चले जाओ। और हाँ, जब बाबू लोग हमारे यहां आएँ, तुम घर से निकलना मत।'

गोपाल की बात सुनकर बूढ़े की कनपटी साँय-सांय करने लगी। चुप होकर बैठ गया। किससे कहे, लड़के की बात है। यह ऐसे स्थान का भाव है, जिसको न देखते बनता है. न दिखाते बनता है। जिसको मन की बातें कहता, वह तो गुजर गई। सहसा बूढ़ी की याद आई। हेर-सा रोया । उसने चारों ओर देखा, कोई आस-भरोसा नहीं। बूढ़ा दुःख के समय बूढ़ी की याद करता है, सुख के समय भी याद करता है। मुंह पोंछा। कहीं गोपाल का अनिष्ट न हो जाए, इस भय से रोना बंद कर दिया।

गोपाल बाबू को कल सुबह देहात के क्षेत्र में जाना है। यह बूढ़े को नहीं बतलाया है। सुबह उठकर, अवज्ञा भाव दिखाते हुए बोले—'ए बाबा ! मैं देहात जा रहा हूँ, तुम सारा सामान लेकर आना। थोड़ी-सी तो चीजें हैं। खबरदार जो मजदूर लगाए, मजदूर लगाओगे तो तुम जानोगे। मैं पैसे नहीं दूंगा।' बाबू पोशाक पहने, कंधे पर छाता लटकाए, छड़ी घुमाते-घुमाते चले गए। बूढ़ा क्या करता, सारी चीजों को बटोर एक गठरी बनाई और गठरी सिर पर लादी। शरीर में ताकत नहीं थी, चलना मुश्किल हो रहा था। बीच-बीच में आँखों से पानी बहता, दस जगह उठ-बैठकर अंत में बूढ़ा शाम को मक्रामपुर पहुँचा। देर होने पर बाबू ने गाली गलौज की। बूढ़ा चुप बैठकर थकावट मिटा रहा था।

बाबू शाम-सबेरे आफिस जाते। बूढ़ा मुख बंद किए घर के धंधों में लगा रहता। बाप बेटा, दोनों को एक जगह बैठकर हँसी-खुशी से बातें करते कभी किसी ने नहीं देखा। डाक मुंशी देहात के एक हाकिम है। कितने आदमी आकर प्रणाम कर जाते हैं। बूढ़ा मूर्ख है, यह क्या जानता है जो उससे बातें करे?

बूढ़े के शरीर में देहात का पानी सुहाया नहीं, बुखार होने लगा। खूं, खूं खाँसी भी होने लगी। रात को खाँसी थोड़ा बढ़ जाती। बाबू सोते के लिए परेशान होने लगे। चपरासी को आदेश दिया—'इस बूढ़े को लेकर केतकी वाड़ में फेंक आओ।' चपरासी बेचारा मूर्ख है, अंग्रेजी नहीं जानता। उसका देशी हृदय है। वह सोचने लगा यह क्या? बूढ़े रोगी को केतकी बाड़ में सुला दूँ? एक दिन की तो बात है। बूढ़े को बहुत जोर का बुखार है। तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया। अंधेरी आधी रात, ठंड लगकर बूड़े की खांसी और भी बढ़ गई। बाबू बहुत ही नाराज हुए। बूढ़े की छाती पर दो अंग्रेजी मुक्के मारे और बिछावन उठाकर बाहर फेंक दिया। बूढ़ा गाँव चला गया।

पास रहने वाले भले आदमियों से सुनने में आया है, गोपाल बाबू उस दिन से बड़े खुश हैं। बूढ़े ने गाँव पहुँच कर अपनी दो एकड़ जमीन को हिस्से में लगा दिया। घर बैठकर धान पा जाता है। पेन्शन के रुपयों से कपड़ा-लत्ता, नून-तेल का काम चल जाता है। खाँसी शुरु होने पर बूढ़े ने थोड़ी-थोड़ी अफ़ीम खानी शुरू कर दी है। सारा खर्च पूरा पड़ जाता है। बुढ़ा बरामदे में बैठकर हरिनाम भजन करता है। अब बाप-बेटे दोनों खुश हैं।

-फकीरमोहन सेनापति

हिन्दी अनुवाद : बिनीता पाठक
[भारतीय कहानी, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, 1976]