ताला खोलकर अन्दर कदम रखते ही कागज के उस टुकड़े पर पांव पड़ गया है। खड़ी-खड़ी ही निगाह झुका कर विभा ने देखा है¬¬—हल्का नीला लिफाफा उल्टा हुआ। लिफाफा किसने भेजा होगा? शायद पिछले कालेज की किसी सहकर्मिनी ने या किसी मुग्धा शिष्या ने। दैनिक चर्चा में व्यवधान की तरह ऐसे पत्र कभी-कभार आ जाते हैं, नहीं तो जीजी का इन्लैण्ड या मम्मी का पोस्टकार्ड—किसी भी पत्र को ललक के साथ उठाने और खोलने की अनुभूति अब मन में नहीं जगती। आज भी वह आगे बढ़ गई है। कॉपियों का बन्डल और भारी पर्स चारपाई पर रखा है, पंखे का स्विच ऑन किया और छाती पर एक हाथ रखे चुपचाप लेट गई है। कालेज के अन्तिम घंटों को निबटाती हुई वह कितनी क्लान्त और मानसिक रूप से विषण्ण हो उठती है। ख़त में होगा भी क्या! वे ही औपचारिकताएं होंगी, ऊबा देने वाली, घिसी पिटी! कुछ देर को आँखें बन्द कर वह लेटी रही फिर आँख खोलकर दीवार पर हिलते कैलेन्डर को देखने लगी। दीवार से छत। छत से जमीन और तभी अपरिमित आश्चर्य और हर्ष के अतिरेक से उछल कर उठ बैठी है। पंखे की हवा ने लिफाफे को सीधा कर दिया है और उसने हस्तलिपि उतनी दूर से भी पहचान ली है—सौरभ की राइटिंग, उसके सौरभ की। पूरे तीन वर्ष बाद! हे भगवान—वह तो विश्वास खोने लगी थी!
पत्र पिछले पते से रिडायरेक्ट होकर आया है। पिछला पता भी उसने कहां से पा लिया यह आश्चर्य ही है। वह तो भागती गई थी—लगातार, एक शहर से दूसरे शहर, दूसरे से तीसरे, पांवों तले जैसे पूरा का पूरा जलता रेगिस्तान बिछ गया हो और एक टुकड़ा ठंडी जमीन की आस उसे भटकाती चली गई हो। आज सौरभ के हाथों की लिखावट ने वह सारा कष्टप्रद एहसास धो-पोंछ डाला है। पत्र हाथ में लिये, बिना खोले ही छलछलाते अपरिमित भावोद्रेक से उसके मन का कोना-कोना भीगने लगा है। उसे ढूंढता हुआ, कई दरवाजे उसका पता पूछता हुआ सौरभ का पत्र उस तक आ पहुंचा है, यह क्या कम है? वह तो सोचने लगी थी कि दुनिया के इस भीड़ भरे मेले में अपने सौरभ को हमेशा के लिये खो दिया है। सौरभ की मानसिक उलझन और स्वयं उसके आहत मन ने जो फासला बीच में रख दिया था—उसे पाटना कठिन दीखने लगा था। पूर्ण समर्पण और विश्वास के बाद अकारण ही अस्वीकार कर दिये जाने को वह सहजता से नहीं ले सकी थी और चुपचाप भीतर ही भीतर बिखरने लगी थी।
कालेज की वह अन्तिम शाम उसके स्मृतिपट पर आज तक गहराई से अंकित हैं। अमलतास के सूखे पत्ते लान में बिछे थे और हवा में धूल की महक थी। आखिरी पेपर आज समाप्त हो गया था। उसने सुबह ही सौरभ से कहा था—"इम्तहान के बाद मेरा इन्तजार करना—तुम ठहरे फिलास्फर बादमी कहीं भूल कर चले मत जाना।"
सौरभ अपनी वही निश्छल हँसी हँसकर बोल उठा था—फिलास्फर होना किसी का स्वभाव नहीं होता विभा! जिन्दगी बेरहमी से पीट देती है और वह प्रतिकार भी नहीं कर पाता तो सोचने लगता है कि चोट कैसे लगी, क्यों लगी और, ऐसी चोट लगती है तो किस कदर पीड़ा होती है—!
—बस, बस! वरना मैं और सब भूल जाऊंगी, यही डायलाग लिख पाऊंगी पेपर में—तुम्हारे जितनी ब्रिलियन्ट नहीं हूँ न! यह हँसती हुई उसे रोक कर बोली थी—रुके रहना, जाना नहीं—जरूरी बात करती है।
—अच्छा! वह परीक्षा भवन की ओर बढ़ गया था। पीछे-पीछे जाती वह सोचने लगी थी कि अगर विषय भूल कर कुछ लिखना ही हुआ तो वह शायद वो सारी बातें लिख डाले जो कई दिनों से मन में उमड़ती रही थी—"सौरभ, तुम्हें क्या पता नहीं कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ? फिर जानकर इतने अनजान क्यों बनते हो?
—तुम्हें पापा ने बुलाया है, आज उनसे मिलकर तुम्हें सब निश्चित करना होगा—हाँ, मेरी मंजिल तुम्हीं हो, तुम केवल तुम—कहीं ऐसा न हो कि तुम चले जाओ और मैं तुम्हें कभी न पा सकूं।"
परीक्षा के बाद पहले सौरभ ही निकला था। वह आई तो पाया कि सौरभ घुटनों पर हाथ बान्धे उदासी के साथ हवा में हिलते-डुलते सूखे पत्तों को ताक रहा है। वह ख़ामोशी के साथ करीब बैठ गई थी और, अपनी बात कहने के पूर्व पूछा था—बड़े उदास दीख रहे हो, पेपर तो अच्छा हुआ है न?
-हाँ, ठीक ही हुआ—
—फिर!
—कुछ नहीं, ऐसे ही—वह जिस ढंग से गुमसुम हो गया था उसमें वह यह संभावना नहीं ढूंढ सकी थी कि वह उसके विछोह के सवाल से उदास हो गया होगा; सौरभ ने ही कहा—वापस घर जाने का खयाल मुझे कभी अच्छा नहीं लगा, मगर अब तो जाना ही होगा।
वह समझ गई थी। सौरम ने टुकड़ों-टुकड़ों में उसे बतला डाला था कि घर में उसकी माँ नहीं है। एक बहन थी, उसकी भी पिछले वर्ष शादी हो गई। घर ही नहीं कस्बे जैसे उस छोटे शहर में ही उसे लगता है जैसे वह किसी से कभी जुड़ा ही नहीं हो। ऐसे में होस्टल जीवन की समाप्ति उसे उदास कर गई हो तो आश्चर्य नहीं था। विभा ने सहानुभूति से भरकर अपना हाथ उसके हाथ पर धर दिया था और कुछ समझाते हुए बोली थी—हर चीज का इलाज होता है. इसका भी है।
—किसका?
—यही, तुम्हारे अकेलेपन का—कहकर वह शरारत से मुस्कराने लगी थी और फिर धीरे से कहा था—मैंने पापा से कहा था। वह तुमसे मिलना चाहते हैं सौरभ..!
—मुझसे...! एक पल के लिये उसका विस्मम घना हो गया फिर वह समझ कर मुस्कराया... ओह! समझा...! मगर, अभी तो मेरी कोई नौकरी भी नहीं है, विभा...
मान के साथ, बनावटी क्रोध से वह बोली थी—जी हां, यह हम सबों को पता है कि आप मेरे क्लासफेलो हैं, सर्विस नहीं करते हैं कहीं, मगर मिलने में कोई हर्ज है क्या? अभी ही तो सब कुछ हुआ नहीं जा रहा न!
ठीक है, आऊंगा... कहते हुए उसके मुख पर खुशी या उत्सुकता का कोई भाव नहीं था, वह अनमने ढंग से दूर-दूर देखता रहा था।
अगले दिन रविवार को वह दिन के खाने पर विभा के घर गया था। डाइनिंग टेबुल पर विभा का पूरा परिवार और दूर मोहल्ले में रहने वाले चाचा-चाची उपस्थित थे। जाहिर था, वे विभा की पसन्द को परखने के लिये इकट्ठा हुए थे। बाद में पता लगा कि वह पसन्द कर लिया गया है और वे उसकी नौकरी लगने तक प्रतीक्षा करने को तैयार हैं। शाम की ट्रेन से वह घर लौटने वाला था। विभा स्टेशन आई थी, पूरी तरह सजी धजी और लाज से रंगी हुई, आने वाले सुखद भविष्य की कल्पना से अनुप्राणित। वह उसे देखता रह गया था। एक बार पुनः अपने हृदय को टटोल कर देखा था—क्या वह इतनी ही स्वाभाविकता से विभा की भावनाओं का प्रत्युत्तर दे सकता था? नहीं—वह जब स्वयं ही अस्वाभाविक होकर रह गया है तब—चलने से पहले उसने कहा था—विभा, मुझे गलत मत समझना—मैं अभी मानसिक रूप से शादी के लिये तैयार नहीं हूँ। मेरी माँ नहीं थी। विमाता आई। मैं उनके दिये उपदेश को चुपचाप सहता रहा, इसलिये कि मेरी एक बहन थी और मैं उसके लिये सब कुछ था। जानती हो, फिर क्या हुआ? शादी के बाद वही बहन ऐसी बदली कि सुसराल की प्रशंसा के साथ मायके से जुड़े अपने पूरे अतीत से नफरत करने लगी—उसमें मैं भी शामिल हूँ। मैं एक अजीब भय और विरक्ति में जकड़ गया हूँ विभा—फूल सी दीखने वाली स्त्रियां अचानक कैसे कांटे में बदल जाती हैं...। मैं...सारी विभा, अभी मैं कुछ तय नहीं कर पाऊंगा...!
विभा जैसे आसमान से गिरी हो, उसे हतप्रभ ताकती रह गई थी। कांपते होंठों से फिर इतना ही कह सकी थी...मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूगी सौरभ...। किसी न किसी दिन तुम इस पूर्वाग्रह से अवश्य मुक्त हो जाओगे... सौरभ, कोई फूल कांटा हो सकता है तो सुगन्ध भी हो सकता है, फुलवारी भी। मगर मैं जिद्द नहीं करूंगी...कभी नहीं, जब तक तुम स्वयं नहीं बुलाओगे....
कहते-कहते उसका कण्ठ स्वर भर गया था पर वह तनी हुई लौट पड़ी थी। अगले ही क्षण ट्रेन चल दी थी, ढेर सारा धुंआ उगलती, प्लेटफार्म को कंपाती।
तभी से वह अध्यापिका की नौकरी करते हुए जगह-जगह भागती रही है, पुराने परिवेश के साथ सौरभ की हर याद भुला देने के लिए लेकिन कहां सफल हो सकी? प्रतीक्षा, अटूट प्रतीक्षा, निराशा और अवसाद ही उसका जीवन दर्शन बनता जा रहा था दिन-दिन।
उसने पत्र खोला है और उत्कंठित हृदय से पढ़ गई है—यदि तुम अभी भी प्रतीक्षारत हो तो मैं तुम्हें आमन्त्रण भेजता हूँ विभा—जीवन के क्षण फूल के रूप में मिलें या कांटे के, उन्हें बांटने को कोई चाहिये और मेरे लिये वह कोई तुम्ही हो सकती हो। मैं जान गया हूँ कि अपने जीवन के लिये खुद मैं जिम्मेदार हूँ, माँ, बहन या और कोई नहीं...
"मेरे लिये तुम्हीं तब भी जीवन थे, अब भी हो सौरभ....। उसने स्वतः कहा है ! खुशी के दो बूंद आंसू पत्र पर चू पड़े हैं।
-प्रतिमा वर्मा