श्यामली जीजी | कहानी

रचनाकार: रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया

ये किस्सा है सांवली सलोनी, बड़ी-बड़ी आँखों वाली, कान्वेंट में पढ़ी लिखी, अंग्रेजी हिंदी दोनों भाषाओ में निपुण, आकर्षक महिला श्यामली जीजी का।

श्यामली, जब मैं उनसे मिली तो वे अकेली थीं। अकेली तो थीं पर लोगों की भीड़ अपने चारों ओर इकट्ठी करने में देर नहीं लगाती थीं। एक खासियत थी उनमें जिसे हम अंग्रेजी में कहते हैं 'गिफ्ट ऑफ़ गैब', जब चाहें जिसे चाहें अपनी बातों के जाल में अटका लेना या कहूँ रिझा लेना।

 जब मैं पहली बार अपनी एक सहेली माया के माध्यम से उनसे मिली तो वे एक कठिन दौर से गुज़र रहीं थीं। बेहद अकेली और डिप्रेस्ड। माया के मुंह से बार-बार सुना—'श्यामली जीजी ये…श्यामली जीजी वो… बहुत बड़े, बहुत अमीर डाक्टर से शादी हुई थी उनकी, दूसरी शादी, अब वो टूट गई, तलाक हो रहा है' वगैरह-वगैरह।

तब मेरे पति नौकरी के सिलसिले में बाहर थे और मैं अपने दोनों बच्चों के साथ अकेली थी। जहाँ सिडनी की खूबसूरती मुझे लुभा रही थी वहीं दो छोटे बच्चों के साथ नए देश में व्यवस्थित होने की चिंता भी थी। सबकी देखा-देखी मेरे लिए भी वो ‘श्यामली जीजी’ बन गईं। नए शहर में मुझे उनकी संगत अच्छी लगी, उनकी नज़रों से सिडनी देखने और समझने में मदद मिली।  

धीरे-धीरे पता लगा कि उनकी पहली शादी काफी कम उम्र में हो गई थी तब वे करीब उन्नीस-बीस साल की थीं। शादी के बाद वे मुंबई चली गईं, पर शादी समझौता अधिक रही, ख़ुशी कम। वे एक निडर, निर्भीक स्वच्छंद स्त्री, जीवन से भरपूर और इसके विपरीत उनके पति गंभीर, काम में व्यस्त और कम रोमांटिक। वे बीस साल पहले अपने दो बेटों और पति के साथ सिडनी आई थीं। छोटा सुखी परिवार। सब कुछ ठीक तो था, पर वे खुश न थीं। नए देश की परेशानियों ने उन्हें झकझोर दिया। बच्चे छोटे थे, पति की कंपनी कुछ दिन बाद बंद हो गई, सो खुद कुछ करने की ठानी।

कुछ समझ न आता था कि क्या किया जाए। पहले कभी नौकरी तो की नहीं, कोई और कोर्स आदि करने का भी मौका न मिला। बी. ए. करते ही माँ-बाप ने इंजिनियर ढूँढा और शादी कर दी। खाना बनाने में निपुण थीं, जो भी खाता, उनके बनाए खाने का कायल हो जाता।  

एक दिन उनकी सहेली मिसेज़ मेहरा ने पूछा— "श्यामली, केटरिंग का काम क्यों नहीं करतीं?" 

"पर कैसे? कौन देगा मुझे आर्डर?" उन्होंने पूछा। 

"पहला आर्डर तो मेरा ही लो, मेरा काम भी हो गया और तुम्हारी शुरूआत भी हो गई।"  मिसेज़ मेहरा हँस दी। 

घर जमाने, बच्चों की देखभाल करने, शायद काम की अधिकता से वे परेशान हो गईं। पर उस दिन उनका बनाया खाना हिट हो गया। सबने खूब तारीफ की। उन दिनों इतनी सुविधाएँ विदेश में थीं नहीं, सो उनका काम चल निकला। ज़िन्दगी में पहली बार अपनी कमाई के पैसे मिले, बड़ी खुश हुईं पर दो-तीन साल में केटरिंग के इस काम से तंग आ गईं। सोचा--"भला ये भी कोई बात हुई? दिन भर खाना बनाते रहो? ये भी क्या ज़िन्दगी है?" 

अब तक अनेक महिला, पुरूष मित्र बन चुके थे। उनकी एक मित्र प्रमिला ने सुझाया– "श्यामली, अंग्रेजी इतनी अच्छी बोलती हो, कॉल सेंटर में क्यों नहीं एप्लाई करतीं, वेकेंसिज़ निकलीं हैं अभी।" 

बस, आइडिया क्लिक हो गया, आनन-फानन रेज्यूमे बनाया, कवर लैटर भी बना, भारतीय परिधान में, लम्बी बिंदी लगाए इंटरव्यू के लिए पहुँच गईं। उम्मीद तो नहीं थी पर उनकी फर्राटेदार अंग्रेजी और बक-झक ने कुछ ऐसा करिश्मा किया कि फोन कंपनी के कॉल सेंटर में उनका चयन हो गया। दोनों बच्चे बड़े हो रहे थे। प्रशांत ग्यारह का था और सुशांत नौ का। पति को भी दूसरी नौकरी मिल गई। सब कुछ ठीक ही तो था, बहुत नहीं तो घर का खर्च तो निकल रहा था,  फिर ऐसा क्यों हुआ कि उनके अट्ठारह साल की शादी-शुदा ज़िन्दगी में हल-चल मच गई। 

एक दिन कॉल सेंटर से फोन लगा रहीं थीं— “हेलो, सर, माय नेम इज़ श्यामली, आई एम कॉलिंग फ्रॉम ओप्टस।'

'व्हाट कैन आई डू फॉर यू?' दूसरी तरफ से रूखी सी आवाज़ आई।

श्यामली जीजी इस तरह के लोगों से निपटना सीख चुकीं थी, सो प्यार से फोन की डील बताई।

दूसरी तरफ वाला आदमी पूछने लगा, 'व्हाट विल आई गेट?'

श्यामली जीजी ने कहा 'अच्छी सर्विस और थोड़ी सस्ती डील...'

बात आगे बड़ी, क्लाइंट उनकी बातों से कन्विंस लगा और अगले दिन इसी वक्त फोन करने के लिए कहा। 
जाने क्या बात थी कि इस बार, शायद पहली बार श्यामली जीजी दो बजने का इंतज़ार करने लगीं। ठीक दो बजे फोन मिलाया, क्लाइंट ने फोन उठाया—“सो श्यामली, राईट ऑन टाइम...”  दोनों हँस पड़े। 

बात आगे चल निकली और क्लाइंट ने बताया कि वो एक डॉक्टर हैं, और बातों-बातों में ये भी पूछ लिया कि क्या श्यामली उनके क्लीनिक में काम करेंगी, क्योंकि उन्हें अपने क्लीनिक में उनके जैसी समझदार, पढ़ी-लिखी रिसेप्शनिस्ट की ज़रुरत है। और, ये भी कह दिया कि अगर श्यामली जीजी तैयार हैं तो अगले दिन इंटरव्यू के लिए आ सकती हैं।   

डॉक्टर चंद्रन श्यामली जीजी की आँखों और वाकपटुता के जादू में ऐसे फंसे कि अच्छी तनख्वाह में नौकरी का ऑफर दे दिया।  डॉक्टर चंद्रन, शायद पैंतालीस साल के होंगे, लम्बे और गठीले शरीर के आदमी, श्री लंका से बरसों पहले सिडनी आकर बस गए थे। विधुर थे, पहली पत्नी श्रीलंकन थीं, जो अब नहीं रहीं, उनसे एक बेटा था जो होस्टल में था। दूसरी शादी एक ऑस्ट्रेलियन से की, जो चल न सकी। घर में माँ थीं जिन्हें सहारा चाहिए था। नौकरी के साथ दोनों कब करीब आ गए, पता ही न चला। श्यामली जीजी के चंचल बातूनी स्वभाव से अकेले डाक्टर की सूनी दुनिया में रौनक आ गई, और श्यामली जीजी को जैसे कोई सहारा मिल गया। 

मन में दबा रोमांस पनपने लगा, लगने लगा कि यही था जिसका उन्हें इंतज़ार था, भूलने लगीं कि एक परिवार है, दो बच्चे हैं, ज़िम्मेदारी है। एक नई दुनिया उन्हें मिल गई और वे उसमें डूबने लगीं। सज-धज के रहना तो उन्हें पसंद था ही, और भी ज्यादा  निखर उठीं। पति ने देखा, कुछ-कुछ समझ में आया, कुछ नहीं आया, पत्नी का यूँ खुश रहना अच्छा नहीं लगा। मन में असुरक्षा पनपने लगी, हीनता ने उन्हें घेर लिया। 

घर में लड़ाई शुरू हो गई--

“घर में बच्चे हैं इसे सजने से फुर्सत नहीं है...”

“अपने कपड़ों की फिकर है बस, बाकी किसी की नहीं।”

“इतनी देर से घर क्यों पहुँचीं?” 

“कहाँ थीं अब तक?” आदि प्रश्नों का उत्तर देना श्यामली जीजी के लिए मुश्किल हो गया। घर में लड़ाई का माहौल रहने लगा। घर की रोज़ की झिक-झिक से तंग आकर श्यामली जीजी ने एक ऐसा निर्णय लिया जो शायद किसी और माँ और पत्नी के लिए मुमकिन न था। पर श्यामली जीजी तो बिल्कुल अलग थीं, एक नया विश्वास था उनमें, वे कमा रहीं थीं, स्वतंत्र थीं,  इतने प्रश्नों में कब तक बंधती। 

आखिर घर छोड़ने का निर्णय लिया उन्होंने, एक दिन जब बच्चे स्कूल में थे और पति कहीं गए हुए थे तो अपना सामान बाँध वे निकल गईं। कुछ दिन अकेली रहीं फिर उनकी परेशानियाँ देख के डॉक्टर चंद्रन अपने घर ले गए। पति से तलाक हो गया, पति ने बच्चों को संभाला और श्यामली जीजी अपनी नई दुनिया में व्यस्त हो गईं। छह महीने बाद डॉक्टर ने उनसे शादी कर ली। श्यामली जीजी देश विदेश घूमीं, हर ख्वाहिश पूरी की, खूबसूरत कपड़ों और गहनों में लदी अपने नए पति के सोशल सर्किल में व्यस्त  हो गईं।

पांच साल हनीमून के अच्छे गुज़रे, अचानक एक दिन उन्हें पता लगा कि डॉक्टर पति का अपने क्लीनिक की चाइनीज़ रिसेप्शनिस्ट के साथ रोमांस चल रहा है। पति  को मनाने की, समझाने की, रिझाने की बहुत कोशिश की, पर जो होना था वही हुआ। एक दिन बात इतनी बढ़ी कि डॉक्टर ने डिवोर्स की मांग की। सारा रोमांस काफूर हो गया। पैर के नीचे से धरती निकल गई, 'अब क्या करें, कहाँ जाएं, दुनिया क्या कहेगी' प्रश्नों ने उन्हें झकझोर दिया। रहने को एक घर और पैसे तो मिले, सर पर छत तो थी, पर इस धक्के से उबर न पाती थीं, विशवास नहीं होता था कि उनके साथ ऐसा हुआ, जिसके लिए घर बार छोड़ा, बच्चे छोड़े, बसी-बसाई दुनिया छोड़ी, उसी ने उन्हें छोड़ दिया? तमाम यतन किये, पंडित से दीक्षा ली, एक बार ज़हर भी खाने की कोशिश की, पर किसी से भी आराम न मिला। खुद को संभाला, दुबारा घर जमाया, नौकरी ढूंढी और व्यस्त हो गईं। कुछ दिन माँ को बुलाकर अपने पास रखा, समाज सेवा की, दो साल और किसी से रोमांस भी हुआ, पर मन में शांति न आई। जगह-जगह घूम कर, लोगों का संग-साथ ढूंढकर अपने जीवन के पांच साल बिताए। अतीत बार-बार उनके सामने घूमने लगा। दस साल बाद बच्चों की याद भी आई। पर वे अब आगे निकल चुके थे, माँ को माफ़ कर पाना उनके लिए संभव न था। उन्होंने समाज में बदनामी के जो दंश सहे थे, वे ही जानते थे—“देखो इनकी माँ किसी और के साथ भाग गई, बच्चों का भी ख्याल नहीं किया...” कैसे इस बात से वे उबर पाते। 

श्यामली जीजी का मन कहीं न लगता, काम करतीं जैसे मशीन, संग साथ था दो पल का। रात को बिस्तर पर लेटतीं, तो अपराध भाव मन को मथने लगता। कितने पुरुष मित्र भी थे, पर संतोष न था, शांति न थी, भटकन थी, अकेलापन था, और असहायता थी।  जी रहीं थीं पर मकसद न था, काम कर रहीं थीं क्योंकि पैसे चाहिए थे, दोस्त सहेली थे क्योंकि वक्त बिताना था। पर फिर क्या…? और क्या…? 

ठीक ही है कि 'जो-जो जैसे होना है वैसे-वैसे होता है।' 

अचानक एक दिन आशा की किरण जगी, जैसे चमत्कार हुआ। उनके कुछ ऑस्ट्रेलियन मित्र मिले, भारत के एक शहर में बने अनाथालय के बारे में उन्हें बताया। अगली बार दिल्ली गईं तो अनाथालय को भी देखने चली गईं। देखने क्या गईं, जैसे वहीं की हो के रह गईं। छोटे-छोटे नाक बहाते बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, कपड़े-लत्ते, स्वास्थ्य और सफाई, सबमें उन्हें आनंद आने लगा। श्यामली जीजी को जैसे जीवन का मकसद मिल गया। सिडनी छोड़ अनाथालय के नाम समर्पित हो गईं। आप सोचेंगे कि वे सन्यासिनी हो गईं, जी नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है, श्यामली जीजी ऐसी हो ही नहीं सकतीं, वे अभी भी ज़िंदादिल हैं, रोमांस से भरपूर हैं, अब शादी के पचड़ों में वे कभी नहीं पड़ेंगी।

बस फर्क ये है कि वे अपने रोमांस का फायदा कभी-कभी अनाथालय के कमरे बनवाने और सामान खरीदने में कर लेती हैं। ज़िन्दगी से हार न मानना और हमेशा उसे नए अर्थ देना, यहीं हैं श्यामली जीजी।
कोई कुछ भी कहे, पर उनकी यही खासियत मुझे बेहद पसंद है। 

-रेखा राजवंशी, ऑस्ट्रेलिया