सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi साहित्य Hindi Literature Collections

कुल रचनाएँ: 13

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बढ़े चलो! बढ़े चलो!

न हाथ एक शस्त्र होन हाथ एक अस्त्र हो,न अन्न, नीर, वस्त्र हो,हटो नहीं,डटो वहीं,बढ़े चलो!बढ़े चलो!
रहे समक्ष हिमशिखर,तुम्हारा प्रण उठे निखर,भले ही जाए तन बिखर,रुको नहीं,झुको नहींबढ़े चलो!बढ़े चलो!
घटा घिरी अटूट हो,अधर में कालकूट हो,वही अम्रत का घूँट हो,जिये चलो,मरे चलो,बढ़े चलो!बढ़े चलो!
गगन उगल...

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कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होतीकोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती नन्ही चींटीं जब दाना ले कर चढ़ती हैचढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती हैमन का विश्वास रगॊं मे साहस भरता हैचढ़ कर गिरना, गिर कर चढ़ना न अखरता हैमेहनत उसकी बेकार नहीं हर बार होतीकोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती डुबकियाँ सिंधु म...

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नववर्ष

स्वागत! जीवन के नवल वर्षआओ, नूतन-निर्माण लिये,इस महा जागरण के युग मेंजाग्रत जीवन अभिमान लिये;
दीनों दुखियों का त्राण लियेमानवता का कल्याण लिये,स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष!तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये।
संसार क्षितिज पर महाक्रान्तिकी ज्वालाओं के गान लिये,मेरे भारत के लिये नईप्रेरणा नया उत्थान लिये;
मु...

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खड़ा हिमालय बता रहा है

खड़ा हिमालय बता रहा हैडरो न आंधी पानी में।खड़े रहो तुम अविचल हो करसब संकट तूफानी में।
डिगो ना अपने प्राण से, तो तुमसब कुछ पा सकते हो प्यारे,तुम भी ऊँचे उठ सकते हो,छू सकते हो नभ के तारे।
अचल रहा जो अपने पथ परलाख मुसीबत आने में,मिली सफलता जग में उसको,जीने में मर जाने में।
- सोहनलाल द्विवेदी
 

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मुक्ता

ज़ंजीरों से चले बाँधनेआज़ादी की चाह।घी से आग बुझाने कीसोची है सीधी राह!
हाथ-पाँव जकड़ो,जो चाहोहै अधिकार तुम्हारा।ज़ंजीरों से क़ैद नहींहो सकता ह्रदय हमारा!
-सोहनलाल द्विवेदी

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मंदिर-दीप

मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।जैसे चाहो, इसे जलाओ, जैसे चाहो, इसे बुझायो,
इसमें क्या अधिकार हमारा? मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।
जस करेगा, ज्योति करेगा, जीवन-पथ का तिमिर हरेगा,
होगा पथ का एक सहारा! मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।
बिना स्नेह यह जल न सकेगा, अधिक दिवस यह चल न सकेगा,
भरे रहो इसमें मधुधारा, ...

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अगर कहीं मैं पैसा होता ?

पढ़े-लिखों से रखता नाता, मैं मूर्खों के पास न जाता,
दुनिया के सब संकट खोता ! अगर कहीं मैं पैसा होता ?
जो करते दिन रात परिश्रम, उनके पास नहीं होता कम,
बहता रहती सुख का सोता ! अगर कहीं मैं पैसा होता ?
रहता दुष्ट जनों से न्यारा, मैं बनता सुजनों का प्यारा,
सारा पाप जगत से धोता ! अगर कहीं मैं पैस...

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तुलसीदास | सोहनलाल द्विवेदी की कविता

अकबर का है कहाँ आज मरकत सिंहासन? भौम राज्य वह, उच्च भवन, चार, वंदीजन;
धूलि धूसरित ढूह खड़े हैं बनकर रजकण,बुझा विभव वैभव प्रदीप, कैसा परिवर्तन?
महाकाल का वक्ष चीरकर, किंतु, निरंतर, सत्य सदृश तुम अचल खड़े हो अवनीतल पर;
रामचरित मणि-रत्न-दीप गृह-गृह में भास्वर, वितरित करता ज्योति, युगों का तम लेता...

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युगावतार गांधी

चल पड़े जिधर दो डग, मग मेंचल पड़े कोटि पग उसी ओर;गड़ गई जिधर भी एक दृष्टिगड़ गए कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज हाथ धराउसके शिर-रक्षक कोटि हाथजिस पर निज मस्तक झुका दियाझुक गए उसी पर कोटि माथ;
हे कोटि चरण, हे कोटि बाहुहे कोटि रूप, हे कोटि नाम !तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटिहे कोटि मूर्ति, तुम...

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अकबर और तुलसीदास

अकबर और तुलसीदास,दोनों ही प्रकट हुए एक समय,एक देश,  कहता है इतिहास;
'अकबर महान'गूँजता  है आज भी कीर्ति-गान,वैभव प्रासाद बड़े जो थे सब हुए खड़े पृथ्वी में आज गड़े!
अकबर का नाम ही है शेष सुन रहे कान!किंतु कवितुलसीदास!धन्य है तुम्हारा यहरामचरित का प्रयास,भवन है तुम्हारा अचल,सदन यह तुम्हा...

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जगमग जगमग

हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,कैसी उजियाली है पग-पग?जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,तुलसी के नन्हें थाले में,यह कौन रहा है दृग को ठग?जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों, नहरों में,प्यारी प्यारी सी लहरों में,तैरते दीप कैसे भग-भग!जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के ...

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वंदना के इन स्वरों में

वंदना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो।वंदिनी माँ को न भूलो,राग में जब मत्त झूलो,अर्चना के रत्नकण में, एक कण मेरा मिला लो।जब हृदय का तार बोले,शृंखला के बंद खोले,हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक शिर मेरा मिला लो।
-सोहनलाल द्विवेदी

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प्रार्थना

प्रभो, न मुझे बनाओ हिमगिरि, जिससे सिर पर इठलाऊँ। प्रभो, न मुझे बनाओ गंगा, जिससे उर पर लहराऊँ।
प्रभो, न मुझे बनाओ उपवन, जिससे तन की छबि होऊँ। प्रभो, बना दो मुझे सिंधु, जिससे भारत के पद धोऊँ॥
-सोहनलाल द्विवेदी

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सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi का जीवन परिचय