देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

त्रिलोचन

त्रिलोचन शास्त्री का जन्म 20 अगस्त 1917, सुलतानपुर (उत्तर प्रदेश)में हुआ था। त्रिलोचन हिंदी की आधुनिक प्रगतिशील कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं।आपने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रज़ी में एम.ए व लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की थी।

आपने हिंदी साहित्य को दर्जनों पुस्तकें देकर समृद्ध किया।

आप पत्रकारिता के क्षेत्र में भी वे सक्रिय रहे और आपने 'प्रभाकर\', 'वानर', 'हंस', 'आज', 'समाज' जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया।

9 दिसम्बर 2007 को ग़ाजियाबाद में आपका निधन हो गया।


साहित्य-सृजन:

कविता संग्रह: धरती, दिगंत, गुलाब और बुलबुल, ताप के ताये हुए दिन, अरधान, उस जनपद का कवि हूँ, फूल नाम है एक, अनकहनी भी कहनी है, तुम्हें सौंपता हूँ, सबका अपना आकाश, अमोला

कहानी संग्रह: देश-काल

डायरी:
दैनंदिनी

संपादन: मुक्तिबोध की कविताएँ, मानक अंग्रेजी-हिंदी कोश (सह संपादन)

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फिर तेरी याद

फिर तेरी याद जो कहीं आई
नींद आने को थी नहीं आई

मैंने देखा विपत्ति का अनुराग
मैं जहाँ था चली वहीं आई

भूमि ने क्या कभी बुलाया था
मृत्यु क्यों स्वर्ग से यहीं आई

व्रत लिया कष्ट सहे वे भी थे,
सिद्धि उनके यहाँ नहीं आई

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यह दिल क्या है देखा दिखाया हुआ है

यह दिल क्या है देखा दिखाया हुआ है
मगर दर्द कितना समाया हुआ है

मेरा दुख सुना चुप रहे फिर वो बोले
कि यह राग पहले का गाया हुआ है

झलक भर दिखा जाएँ बस उनसे कह दो
कोई एक दर्शन को आया हुआ है

न पूछो यहाँ ताप की क्या कमी है
सभी का हृदय उसमें ताया हुआ है

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तुलसी बाबा

तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी
       मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो ।
कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी, तीखी ।

प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो ।
और वृक्ष गिर गए, मगर तुम थमे हुए हो ।
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चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं|

चम्पा सुन्दर की लड़की है
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भटकता हूँ दर-दर | ग़ज़ल

भटकता हूँ दर-दर कहाँ अपना घर है
इधर भी, सुना है कि उनकी नज़र है

उन्होंने मुझे देख के सुख जो पूछा
तो मैंने कहा कौन जाने किधर है

तुम्हारी कुशल कल जो पूछी उन्होंने
तो मैं रो दिया कह के आत्मा अमर है

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यह चिंता है | ग़ज़ल

यह चिंता है वह चिंता है
जी को चैन कहाँ मिलता है

फूल आनंद का बहुत खोजा,
कब आता है, कब खिलता है

कहा किसी ने नहीं, "सुखी हूँ"
देखा सबको व्याकुलता है

जीवन पथ पर जिन को देखा
उन सब से मन की ममता है

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बिस्तरा है न चारपाई है

बिस्तरा है न चारपाई है
जिंदगी ख़ूब हम ने पाई है

कल अंधेरे में जिस ने सर काटा,
नाम मत लो हमारा भाई है

गुल की ख़ातिर करे भी क्या कोई,
उस की तक़दीर में बुराई है

जो बुराई है अपने माथे है,
उन के हाथों महज़ भलाई है

अब तो जैसी भी आए सहना है,
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दुख में भी परिचित मुखों को

दुख में भी परिचित मुखों को तुम ने पहचाना है क्या
अपना ही सा उन का मन है यह कभी माना है क्या

जिन की हम ने याद की जिन के लिए बैठे रहे
वे हमें भूलें तो भूलें इस में पछताना है क्या

हाथ ही हिलता न हो जब पाँव ही उठता न हो
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चतुष्पदियाँ 

स्वर के सागर की बस लहर ली है 
और अनुभूति को वाणी दी है 
मुझ से तू गीत माँगता है क्यों 
मैं ने दुकान क्या कोई की है 

स्वर सभी तान पर नहीं मिलते 
हृदय अभिमान पर नहीं मिलते 
पास पैसा है ओर धुन भी है 
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चुप क्यों न रहूँ | ग़ज़ल

चुप क्यों न रहूँ हाल सुनाऊँ कहाँ कहाँ
जा जा के चोट अपनी दिखाऊँ कहाँ कहाँ

जो देखा है अच्छा हो उसे दिल भी न जाने
इस जी की बात जा के चलाऊँ कहाँ कहाँ

रोने में, क्या धरा है भूतकाल था भला
किस किस गली में उस को बुलाऊँ कहाँ कहाँ

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