देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

काव्य

जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

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कुण्डलिया दिवस  - भारत-दर्शन

त्रिलोक सिंह ठकुरेला साहित्य जगत का परिचित नाम है। उन्होंने लुप्तप्रायः कुण्डलिया छंद के लिए विशेष उद्यम किया है। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ साहित्यकार 19 नवंबर को कुण्डलिया दिवस का आयोजन कर रहे हैं। 

 
नेता एकम नेता  - गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas

नेता एकम नेता 
हरदम उल्लू चेता 

 
डॉo सत्यवान 'सौरभ' के दोहे  - डॉo सत्यवान 'सौरभ'

सास ससुर सेवा करे, बहुएँ करती राज।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज॥

 
आप सूरज को जुगनू | ग़ज़ल  - रोहित कुमार हैप्पी

आप सूरज को जुगनू बता दीजिए 
इस तरह नाम उसका मिटा दीजिए

 
बड़ी नाज़ुक है डोरी | ग़ज़ल  - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

बड़ी नाज़ुक है डोरी साँस की यह 
कहीं टूटी तो बाकी क्या रहेगा

 
सत्य-असत्य में अंतर - शरदेन्दु शुक्ल 'शरद'

मैंने चवन्नी डाली 
जैसे ही आरती की थाली 
सामने आई, 
बाजू वाले ने 
हमें घूरते हुए 
सौ का पत्ता डाला 
और छाती फुलाई!
तभी पीछे से किसी ने कहा, 
सेठजी 
घर में छापा पड़ गया है, 
शहर में इज्जत का 
जनाज़ा निकल गया है, 
उसने चोर आंखों से 
हमें देखा, 
उसकी निगाह 
शर्म से गड़ रही थी, 
और अब मेरी चवन्नी 
सौ पे भारी पड़ रही थी।

 
न संज्ञा, न सर्वनाम - शंभू ठाकुर

मैं हूँ-- 
न संज्ञा, न सर्वनाम,
वर्णाक्षरों के भीड़ में,
शायद कोई 
मात्रा गुमनाम!

 
नून-तेल की खोज में - नेतलाल यादव

सफ़र की पिछली रात
हरिया को नींद नहीं आई,
उठ गया, अहले सुबह
भर लिया, सारा कपड़ा
अपनी पुरानी थैली में,
खा लिया, भात और चटनी। 

 
मुकरियाँ  - गौतम कुमार “सागर”

चिपटा रहता है दिन भर वो
बिन उसके भी चैन नहीं तो
ऊंचा नीचा रहता टोन
ए सखि साजन? ना सखि फोन!

इसे जलाकर मैं भी जलती
रोटी भात इसी से मिलती
ये बैरी मिट्टी का दूल्हा
ए सखि साजन? ना सखि चूल्हा!

 
माँ के बाद पिता - विनोद दूबे

माँ मर गयी तो पिता यूँ हो गए, 
जैसे दो में से एक नहीं, सिर्फ शून्य शेष रह गया,
माँ, पिता और बच्चों के संबाद का पुल थी,  
अब पिता अकसर ख़ामोश रहते हैं,
माँ के साथ उनका वो पुल भी बह गया। 

 
बचपन बीत रहा है - योगेन्द्र प्रताप मौर्य

नचा रही मजबूरी यहाँ
अँगुलियों पर,
ध्यान किसी का जाता नहीं
सिसकियों पर।

 
निःशब्द कविता - डॉ अनीता शर्मा

उधर गगन में 
सूरज की बिंदी 
नीले नभ में 
तैरते बादल
बादलों के बीच 
उड़ते परिंदे।  
इधर झील में
खिले कमल 
मंद पवन 
निश्चल बन 
निहारती 
केवल मौनता 
कोई रच गया 
निःशब्द कविता। 

 
नारी - रति चौबे

कहते मुझे नारी
लता सी कोमल
जहां मिला ठोस आधार
लता सी विश्वास कर
लिपटती जाऊं
जड़े मेरी परिपक्व
छोड़ूं ना वो स्थल
पर--
निशब्द
मूक
अशक्त
नहीं मैं
अद्भुत ईश्वरीय कृति हूँ--
महारानी बन शासन
करूं मै--
बनूं कोमलाग्नि लावण्या
पुरुषों को करूं मौन
विधोत्तमा बन रचूं मैं--
पुस्तकें
रहूं घूंघट की ओट में
मांथे पे लागा बिंदी
गृहिणी सी लजाती
माँ, भार्या, भगिनी, पुत्री
प्रेमिका बनी
पर रही बस नारी
मुझे रच विधाता
चकरा गया
जो ना कटे आरि से
ऐसी बनी मैं नारी
बस, नारी

 
डॉ दिविक रमेश की पाँच कविताएं  - दिविक रमेश 

दो बच्चे

 
वही फिर मुझे याद... - ख़ुमार बाराबंकवी

वही फिर मुझे याद आने लगे हैं
जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं

 
गँवाई ज़िंदगी जाकर... - मुहम्मद आसिफ अली

गँवाई ज़िंदगी जाकर बचानी चाहिए थी
बुढ़ापे के लिए मुझको जवानी चाहिए थी

 
सपनों को संदेसे भेजो - बृज राज किशोर 'राहगीर'

सपनों को संदेसे भेजो,
ख़ुशियों को चिट्ठी लिखवाओ।
उनकी आवभगत करनी है,
मुस्कानों को घर बुलवाओ॥

 
भाग्य विधाता - मोहित नेगी मुंतज़िर 

कितनी ही मेहनत करके दो जून रोटियां पाते हैं,
भाग्य विधाता लोकतंत्र के सड़कों पर रात बिताते हैं।

 

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