देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

सुदामा पांडेय धूमिल

सुदामा पांडेय 'धूमिल' का जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी के निकट गाँव खेवली में हुआ था। उनके पूर्वज कहीं दूर से  खेवली में आ बसे थे।  धूमिल के पिता शिवनायक पांडे एक मुनीम थे व इनकी माता रजवंती देवी घर-बार संभालती थी। जब धूमिल ग्यारह वर्ष के थे तो इनके पिता का देहांत हो गया। आपका बचपन संघर्षमय रहा।

धूमिल का विवाह १२ वर्ष की आयु में मूरत देवी से हुआ।

१९५३ में जब आपने हाई स्कूल उत्तीर्ण किया तो आप गांव के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिसने मैट्रिक पास की थी। आर्थिक दबावों के रहते वे अपनी पढ़ाई जारी न रख सके। स्वाध्याय व पुस्तकालय दोनों के बल पर उनका बौद्धिक विकास होता रहा।

रोजगार की तलाश 'धूमिल' को कलकत्ता ले आई। कहीं ढँग का काम न मिला तो लोहा ढोने का काम कया व मजदूरों की ज़िंदगी को करीब से जाना। इस काम की जानकारी उनके सहपाठी मित्र तारकनाथ पांडे को मिली तो उन्होंने अपनी जानकारी में उन्हें एक लकड़ी की कम्पनी (मैसर्स तलवार ब्रदर्ज़ प्रा. लि० में नौकरी दिलवा दी। वहाँ वे लगभग डेढ वर्ष तक एक अधिकारी के तौर पर कार्यरत रहे। इसी बीच अस्वस्थ होने पर स्वास्थ्य-लाभ हेतु घर लौट आए। बीमारी के दौरान मालिक ने उन्हें मोतीहारी से गौहाटी चले जाने को कहा। 'धूमिल' ने अपने अस्वस्थ होने का हवाले देते हुए इनकार कर दिया। मालिक का घमंड बोल उठा, "आई एेम पेइंग फॉर माई वर्क, नॉट फॉर योर हेल्थ!"

'धूमिल' के स्वाभिमान पर चोट लगी तो मालिक को खरी-खरी सुना दी,"बट आई ऐम वर्किंग फॉर माई हेल्थ, नॉट वोर योर वर्क।" 

फिर क्या था साढ़े चार सौ की नौकरी, प्रति घन फुट मिलने वाला कमीशन व टी. ए, डी. ए....'धूमिल' ने सबको लात लगा दी।  इसी घटना से 'धूमिल' पूंजीपतियों और मज़दूरों के दृष्टिकोण व फ़ासले को समझे। अब उनका जनवादी संघर्ष उनकी कविता में आक्रोश बन प्रकट होने वाला था। धूमिल को हिंदी कविता के संघर्ष का कवि कजा जाता है।

१९५७ में 'धूमिल' ने कांशी विश्वविद्यालय के औद्योगिक संस्थान में प्रवेश लिया। १९५८ में प्रथम श्रेणी से प्रथम स्थान लेकर 'विद्युत का डिप्लोमा' लिया। वहीं विद्युत-अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए। फिर यही नौकरी व पदोन्नति पाकर वे बलिया, बनारस व सहारनपुर में कार्यरत रहे। १९७४ में जब वे सीतापुर में कार्यरत थे तो वे अस्वस्थ हो गये। अपनी स्पष्टवादिता व अखड़पन के कारण उन्हें अधिकारियों का कोपभाजन होना पड़ा। उच्चाधिकारी अपना दबाव बनाए रखने के कारण उन्हें किसी न किसी ढँग से उत्पीड़ित करते रहते थे। यही दबाव 'धूमिल' के मानसिक तनाव का कारण बन गया। अक्टूबर १९७४ को असहनीय सिर दर्द के कारण 'धूमिल' को काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया। डॉक्टरों ने उन्हें ब्रेन ट्यूमर बताया ।  नवंबर १९७४ को उन्हें लखनऊ के 'किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया। यहाँ उनके मस्तिष्क का ऑपरेशन हुआ लेकिन उसके बाद वे 'कॉमा' में चले गए और बेहोशी की इस अवस्था में ही १० फरवरी १९७५ को वे काल के भाजक बन गए।


धूमिल की साहित्यिक कृतियाँ: 

अभी तक धूमिल के चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सम्मिलित हैं -

  • संसद से सड़क तक (इसका प्रकाशन स्वयं 'धूमिल ने किया था)
  • कल सुनना मुझे (संपादन - राजशेखर)
  • धूमिल की कविताएं (संपादन - डॉ शुकदेव)
  • सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (संपादन - रत्नशंकर। रत्नशंकर 'धूमिल' के पुत्र हैं।)

उपरोक्त कृति 'संसद से सड़क तक' का प्रकाशन स्वयं 'धूमिल ने किया था व शेष का प्रकाशन मरणोंपरांत विभिन्न प्रकाशकों द्वारा किया गया।

 

 

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धूमिल की अंतिम कविता

"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग।"

लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।

-धूमिल

 


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रोटी और संसद

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।

-धूमिल

 


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बीस साल बाद


मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।

और जहाँ हर चेतावनी
ख़तरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बन कर रह गयी है।

बीस साल बाद
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