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निदा फ़ाज़ली
निदा फ़ाज़ली का जन्म 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में हुआ। आपका वास्तविक नाम मुक़्तदा हसन निदा है । भारत विभाजन के समय फ़ाज़ली का सारा परिवार पाकिस्तान में चला गया लेकिन फ़ाज़ली ने भारत में ही बसे रहने का निर्णय लिया।
'निदा' स्वर को कहा जाता है व फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पुरखे दिल्ली आ बसे थे, यथा आपने अपने नाम में 'फ़ाज़ली' उपनाम जोड़ लिया।
प्रारंभिक जीवन ग्वालियर में गुजरा ग्वालियर में रहते हुए, आपने उर्दू अदब में अपनी पहचान बना ली और बहुत जल्द ही उर्दू की साठोत्तरी पीढ़ी के एक महत्वपूर्ण शायर के रूप में पहचाने जाने लगे।
अपने सपनों को यथार्थ की जमीन देने के लिए 1964 में मुंबई आ गए। एक दशक से भी अधिक तक मुंबई में संघर्ष करने के पश्चात 1980 में प्रदर्शित फिल्म ‘आप तो ऐसे न थे' में पार्श्व गायक मनहर उधास की आवाज़ में आपके गीत ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी मे शामिल है' को सफलता मिली। अब निदा फ़ाज़ली कुछ हद तक गीतकार के रूप में मुंबई की मायानगरी में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।
फिल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता' के लिए निदा फ़ाज़ली ने 'कभी किसी को मुक्कमल जहां नहीं मिलता गीत लिखा। आशा भोसले और भूपिंदर सिंह की आवाज़ में उनका यह गीत श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ।
गजल गायक जगजीत सिंह ने निदा फ़ाज़ली के कई गीत गाए, जिनमें 1999 मे प्रदर्शित फिल्म सरफरोश का गीत 'होश वालो को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है' भी सम्मिलित है।
फ़ाज़ली की कथनी और करनी में फर्क ना था. फ़ाज़ली का एक दोहा देखिए -
‘सूफ़ी का क़ौल हो या पंडित का ज्ञान ।
जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान।।'
अपना पहला काव्य संकलन ‘लफ्जों के पुल' प्रकाशित होते ही आप भारत और पाकिस्तान में प्रसिद्ध हो गए। इससे पहले अपनी गद्य की किताब ‘मुलाकातें' के लिए आप काफ़ी चर्चित रह चुके थे।
‘खोया हुआ सा कुछ' आपकी शायरी का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है। आपकी इस कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। आप की आत्मकथा का पहला खंड 'दीवारों के बीच' और दूसरा खंड 'दीवारों के बाहर' बेहद लोकप्रिय हुए हैं।
हिंदी-उर्दू काव्य प्रेमियों के बीच समान रूप से लोकप्रिय और सम्मानित 'निदा फ़ाज़ली' समकालीन साहित्य के उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।
8 फरवरी 2016 को मुंबई में निदा फ़ाज़ली का निधन हो गया।
[भारत-दर्शन संकलन]
Author's Collection
Total Number Of Record :7निदा फ़ाज़ली के दोहे
बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान ।
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान ।।
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार ।
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार ।।
घर को खोजें रात दिन घर से निकले पाँव ।
वो रस्ता ही खो गया जिस रस्ते था गाँव ।।
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माँ | ग़ज़ल
बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका, बासन, चिमटा, फूंकनी जैसी माँ
बांस की खुर्री खाट के ऊपर, हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी, थकी दोपहरी जैसी माँ
चिड़ियों के चहकार में गूंजे, राधा - मोहन अली-अली
मुर्गी की आवाज़ से खुलती, घर की कुण्डी जैसी माँ
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अपना ग़म लेके | ग़ज़ल
अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये
जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये
बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये
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घर से निकले ....
घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे
हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे
इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे
शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते
बहते दरिया-से जहाँ होंगे, ठहर जाओगे
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कभी कभी यूं भी हमने
कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है
मीरो ग़ालिब के शेरों ने किसका साथ निभाया है
सस्ते गीतों को लिख लिखकर हमने घर बनवाया है
हमसे पूछो इज़्जत वालों की इज़्जत का हाल कभी
हमने भी इक शहर में रहकर थोड़ा नाम कमाया है
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दुख में नीर बहा देते थे
दुख में नीर बहा देते थे सुख में हँसने लगते थे
सीधे-सादे लोग थे लेकिन कितने अच्छे लगते थे
नफ़रत चढ़ती आँधी जैसी प्यार उबलते चश्मों सा
बैरी हूँ या संगी साथी सारे अपने लगते थे
बहते पानी दुख-सुख बाँटें पेड़ बड़े बूढ़ों जैसे
बच्चों की आहट सुनते ही खेत लहकने लगते थे
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सफ़र में धूप तो होगी | ग़ज़ल
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो
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