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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (Sarveshwar Dayal Saxena) का जन्म 15 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में एक साधारण परिवार में हुआ था। आप तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। आपकी शिक्षा बस्ती, बनारस और इलाहाबाद में हुई थी। कुछ समय तक स्कूल में अध्यापक रहे, क्लर्क भी रहे परंतु दोनों ही पदों से त्यागपत्र देकर दिल्ली आ गए। दिल्ली में कुछ वर्ष तक आकाशवाणी में समाचार विभाग में काम करते रहे। बाद में ‘दिनमान' के उप संपादक रहे और ‘पराग' पत्रिका के संपादक बने। यद्यपि आपका साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ तथापि ‘चरचे और चरखे' स्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख ख़ासे लोकप्रिय रहे। आपके साहित्य सृजन में कविता के अतिरिक्त कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी सम्मिलित है।
साहित्यिक कृतियाँ:
काव्य संग्रह: ‘काठ की घाटियाँ', ‘बाँस का पुल', ‘एक सूनी नाव', ‘गर्म हवाएँ', ‘कुआनो नदी', ‘कविताएँ-1', ‘कविताएँ-2', ‘जंगल का दर्द' और ‘खूँटियों पर टंगे लोग' आपके काव्य संग्रह हैं।
उपन्यास: ‘उड़े हुए रंग' आपका उपन्यास है। ‘सोया हुआ जल' और ‘पागल कुत्तों का मसीहा' नाम से अपने दो लघु उपन्यास लिखे।
कहानी संकलन: ‘अंधेरे पर अंधेरा' संग्रह में आपकी कहानियाँ संकलित हैं।
नाटक: ‘बकरी' नामक आपका नाटक भी खासा लोकप्रिय रहा।
बाल साहित्य: बालोपयोगी साहित्य में आपकी कृतियाँ ‘भौं-भौं-खों-खों', ‘लाख की नाक', ‘बतूता का जूता' और ‘महंगू की टाई' सम्मिलित हैं।
यात्रा-वृत्तांत : ‘कुछ रंग कुछ गंध' शीर्षक से आपका यात्रा-वृत्तांत भी प्रकाशित हुआ।
संपादन : इसके साथ-साथ आपने ‘शमशेर' और ‘नेपाली कविताएँ' नामक कृतियों का संपादन भी किया।
पुरस्कार : 1983 में आपको अपने कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। आपकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ।
निधन: 24 सितंबर 1983 को आपका निधन हो गया।
Author's Collection
Total Number Of Record :3सफेद गुड़
दुकान पर सफेद गुड़ रखा था। दुर्लभ था। उसे देखकर बार-बार उसके मुँह से पानी आ जाता था। आते-जाते वह ललचाई नजरों से गुड़ की ओर देखता, फिर मन मसोसकर रह जाता।
आखिरकार उसने हिम्मत की और घर जाकर माँ से कहा। माँ बैठी फटे कपड़े सिल रही थी। उसने आँख उठाकर कुछ देर दीन दृष्टि से उसकी ओर देखा, फिर ऊपर आसमान की ओर देखने लगी और बड़ी देर तक देखती रही। बोली कुछ नहीं। वह चुपचाप माँ के पास से चला गया। जब माँ के पास पैसे नहीं होते तो वह इसी तरह देखती थी। वह यह जानता था।
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अजनबी देश है यह
अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है
कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है;
जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,
नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है;
होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त--
द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है;
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लीक पर वे चलें
लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं।
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।
शेष जो भी हैं-
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