Important Links
स्वयं प्रकाश
स्वयं प्रकाश का जन्म 20 जनवरी 1947 को मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में हुआ था। उनका बचपन राजस्थान में व्यतीत हुआ। वहीं मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने लगे। आपने हिंदी में एम.ए किया था और आपने 1980 में पीएचडी की थी। नौकरी का अधिकांश समय राजस्थान में बीता लेकिन स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद आप भोपाल में रहे। यहाँ ‘वसुधा' पत्रिका के संपादन कार्य से जुड़े रहे।
कहानी लेखन शुरू करने से पहले आप कविताएं लिखते थे।
प्रमुख रचनाएँ: स्वयं प्रकाश अपने समय के प्रसिद्ध कहानीकार हैं। अब तक उनके तेरह कहानी संग्रह और पाँच उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।
कहानी संग्रह: मात्रा और भार (1975), सूरज कब निकलेगा (1981), आसमां कैसे-कैसे (1982), अगली किताब (1988), आएंगे अच्छे दिन भी (1991), आदमी जात का आदमी (1994), अगले जनम (2002), संधान (2006), छोटू उस्ताद (2015)।
प्रमुख उपन्यास: जलते जहाज पर (1982), ज्योति रथ के सारथी (1987), उत्तर जीवन कथा (1993), बीच में विनय (1994) और ईंधन (2004)
निबंध: स्वांतः सुखाय, दूसरा पहलू, रंगशाला में एक दोपहर, एक कहानीकार की नोटबुक
नाटक: 'फीनिक्स', 'चौबोली' और ‘सबका दुश्मन'
संपादन: ‘वसुधा' और बच्चों की चर्चित पत्रिका ‘चकमक' के अतिरिक्त मोहन श्रोत्रिय के साथ लघु पत्रिका ‘क्यों' का संपादन-प्रकाशन किया।
साहित्यिक विशेषताएँ: स्वयं प्रकाश की कहानियों में शोषण के विरुद्ध चेतना का भाव देखने को मिलता है। आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक जीवन में जाति, संप्रदाय और लिंग भेद के विरुद्ध प्रतिकार के स्वर को उभारा है।
भाषा-शैली: स्वयं प्रकाश ने अपनी रचनाओं के लिए सरल, सहज एवं भावानुकूल भाषा को अपनाया है। उन्होंने लोक-प्रचलित खड़ी बोली में अपनी रचनाएँ की। तत्सम, तद्भव, देशज, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी के शब्दों की बहुलता से प्रयोग है, फिर भी वे शब्द स्वाभाविक बन पड़े हैं।
सम्मान: आपको पहल सम्मान, वनमाली स्मृति पुरस्कार, राजस्थान अकादमी पुरस्कार, विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, भवभूति सम्मान, कथाक्रम सम्मान, सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है।
निधन: कथाकार स्वयं प्रकाश का 7 दिसंबर 2019 को मुंबई के लीलावती अस्पताल में निधन हो गया।
Author's Collection
Total Number Of Record :1नेता जी का चश्मा
हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम से सिलसिले में उस कस्बे से गुजरना पड़ता था।
कस्बा बहुत बड़ा नहीं था। जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसे कुछ ही मकान और जिसे बाजार कहा जा सके वैसा एक ही बाजार था। कस्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का छोटा-सा कारखाना, दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक ठो नगरपालिका भी थी। नगरपालिका थी तो कुछ-न-कुछ करती भी रहती थी। कभी कोई सड़क पक्की करवा दी, कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए, कभी कबूतरों की छतरी बनवा दी तो कभी कवि सम्मेलन करवा दिया। इसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार 'शहर' के मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। यह कहानी उसी प्रतिमा के बारे में है, बल्कि उसके भी एक छोटे-से हिस्से के बारे में।
...