देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

प्रगीत कुँअर का जन्म 23 दिसम्बर 1970 को ग़ाज़ियाबाद (उ० प्र०) में हुआ था। आप सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) के निवासी हैं।

आपने बी० कॉम, सी० ए०, आई० सी० डब्ल्यू ० ए०, एल० एल० बी० की है। प्रगीत कुँअर ने भारतीय शास्त्रीय संगीत का भी अध्ययन किया है। 

प्रकाशित पुस्तक: देखें थे जो ख़्वाब (दोहा संग्रह)।

अन्य : दोहों के साथ-साथ गज़ल, कहानी और लघुकथाएँ भी लिखी हैं जिनका प्रकाशन विभिन्न स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में होता रहा है।


पुरस्कार: विश्व हिंदी सचिवालय मॉरीशस की अंतरराष्ट्रीय हिंदी लघुकथा प्रतियोगिता में तृतीय स्थान प्राप्त।

अभिरुचि: साहित्य लेखन, अध्ययन, संगीत और काव्य। कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों में सक्रिय।

संप्रति: निजी कम्पनी में डायरेक्टर एकाउंट्स एवं फ़ाइनेंस।

संपर्क: prageetk@yahoo.com

 

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यूँ तो मिलना-जुलना

यूँ तो मिलना-जुलना चलता रहता है
मिलकर उनका जाना खलता रहता है

उसकी आँखों की चौखट पर एक दिया
बरसों से दिन-रात ही जलता रहता है

कितने कपड़े रखता है अलमारी में
जाने कितने रंग बदलता रहता है

सूरज को देखा है पानी में गिरते
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दिन में जो भी प्यारा | ग़ज़ल

दिन में जो भी प्यारा मंज़र लगता है
अंधियारे में देखो तो डर लगता है

आँगन में कर दीं इतनी दीवार खड़ी
अब उन दीवारों पर ही सर लगता है

इतना भटकाया है हमको रस्तों ने
अब हर रस्ता ही अपना घर लगता है

कहता है कुछ लेकिन कुछ वो करता है
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प्रगीत कुँअर के मुक्तक

वो समय कैसा कि जिसमें आज हो पर कल ना हो
वो ही रह सकता है स्थिर हो जो पत्थर जल ना हो
हाथ में लेकर भरा बर्तन ख़ुशी औ ग़म का जब
चल रही हो ज़िंदगी कैसे कोई हलचल ना हो

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उन्हें डर था कहीं हम आसमाँ को पार न कर दें
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