देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

सुषम बेदी

सुषम बेदी का जीवन परिचय

सुषम बेदी का जन्म 1 जुलाई 1945 को फ़ीरोज़पुर, पंजाब में हुआ था।

सुषम बेदी हिंदी की कथाकार और उपन्यासकार हैं। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा दिल्ली और पंजाब में हासिल की। सुषम बेदी की पहली कहानी 1978 में साहित्यिक पत्रिका 'कहानी' में प्रकाशित हुई थी। 1984 से उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रही हैं। उनकी रचनाओं में भारतीय और पश्चिमी संस्कृति के बीच झूलते प्रवासी भारतीयों के मानसिक आन्दोलन का सुन्दर चित्रण होता है। रंगमंच, आकाशवाणी और दूरदर्शन की जानी-पहचानी शख्सियत सुषम बेदी 1979 में अमेरिका चली गयीं। वहीं रहकर अध्यापन से जुड़ी सुषम बेदी की अनेक रचनाओं का अंग्रेज़ी और उर्दू में भी अनुवाद हुआ है।

प्रमुख कृतियाँ :

उपन्यास :
'हवन', 'लौटना', 'नव भूम की रसकथा', 'गाथा अमरबेल की', 'कतरा-दर-क़तरा', 'इतर', 'मैंने नाता तोड़ा' तथा 'मोर्चे'

कहानी संग्रह :
'चिड़िया और चील', 'सुषम बेदी की यादगार कहानियाँ' तथा 'तीसरी आँख'

शोध ग्रन्थ :
'हिन्दी नाट्य प्रयोग के सन्दर्भ में'. 'हिन्दी भाषा का भूमण्डलीकरण तथा आरोह-अवरोह'

सम्प्रति : कोलम्बिया विश्वविद्यालय, न्यू यॉर्क में हिंदी भाषा और साहित्य की प्रोफ़ेसर रहीं।

निधन : 20 मार्च 2020 को आपका निधन हो गया।

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प्रेम के कई चेहरे

वाटिका की तापसी सीता का
नकटी शूर्पणखा का
चिर बिरहन गोपिका का
जुए में हारी द्रौपदी का
यम को ललकारती
सावित्री का।

-सुषम बेदी

[सुषम बेदी की कविता]

 

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जापान का हिंदी संसार - सुषम बेदी

जैसा कि कुछ सालों से इधर जगह-जगह विदेशों में हिंदी के कार्यक्रम शुरू हो रहे हैं उसी तरह से जापान में भी पिछले दस-बीस साल से हिंदी पढ़ाई जा रही होगी, मैंने यही सोचा था जबकि सुरेश रितुपर्ण ने टोकियो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरन स्टडीज़ की ओर से विश्व हिंदी सम्मेलन का आमंत्रण भेजा। वहाँ पहुंचने के बाद मेरे लिए यह सचमुच बहुत सुखद आश्चर्य का विषय था कि दरअसल जापान में हिंदी पढ़ाने का कार्यक्रम 100 साल से भी अधिक पुराना है और वहां सन 1908 से हिंदी पढ़ाई जा रही है। आखिर हम भूल कैसे सकते हैं कि जापान के साथ भारत के सम्बन्ध उस समय से चले आ रहे हैं जब छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का वहां आगमन हुआ। यह जरूर है कि सीधे भारत से न आकर यह धर्म चीन और कोरिया के ज़रिये यहां आया। इस विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी भी बहुत सम्पन्न है। वहां लगभग 60-70 हजार के क़रीब हिंदी की पुस्तकें और पत्रिकाएँ हैं।

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अमरीका में हिंदी : एक सिंहावलोकन

जब से अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने (जनवरी 2006) यह घोषणा की है कि अरबी, हिंदी, उर्दू जैसी भाषाओं के लिए अमरीकी शिक्षा में विशेष बल दिया जाएगा और इन भाषाओं के लिए अलग से धन भी आरक्षित किया गया तो यह समाचार सारे संसार में आग की तरह फैल गया था। यहाँ तक कि फरवरी 2007 को भी डिस्कवर लैंग्वेजेस महीना घोषित किया गया। अमरीकी कौंसिल आन द टीचिंग आफ फारन लैंग्वेजेस नामक भाषा शिक्षण से जुड़ी संस्था ने विशेष रूप से राष्ट्रपति बुश के संदेश को प्रसारित करते हुए बताया है कि देश भर में कई तरह से स्कूलों और कालेजों के प्राध्यापक भाषाओं के वैविध्य को मना रहे हैं। सच तो यह है कि दुनिया को चाहे अब जा के पता चला हो कि इन भाषाओं को पढ़ाया जाएगा, इस दिशा में काम तो बहुत पहले से ही हो रहा था।

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संगीत पार्टी

तबले पर कहरवा बज रहा था। सुनीता एक चुस्त-सा फिल्मी गीत गा रही थी। आवाज़ मधुर थी पर मँजाव नहीं था। सो बीच-बीच में कभी ताल की गलती हो जाती तो कभी सुर ठीक न लगता।

फिर भी जब गाना ख़त्म हुआ तो सबने खूब तालियाँ बजाई और अचला ने तो तारीफ़ में कहा कि बिल्कुल लता की तरह गाती है। अचला सभी गाने वालों को कोई न कोई नाम ज़रूर दे डालती थी। इससे गानेवाले सचमुच अपने आप को उस गायक के समान मान कर खुश हो जाते थे। फिर अगली पार्टी के लिए उसी फिल्मी गायक का कोई और गाना तैयार कर लेते। इस तरह हर दूसरे हफ्ते होने वाली इस संगीत महफिल में सभी की कोई न कोई उम्दा पहचान बनाती जा रही थी। समीर किशोर कुमार था, जमीला आशा भोसले, सुदेशराज मुकेश था, पवनकुमार मुहम्मद रफी, तथा अमृत सेठी तलत महमूद।

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