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संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया
संध्या नायर एक दशक से ऑस्ट्रेलिया की निवासी हैं। पेशे से बिजनेस डेवलपमेंट मैनेजर हैं। आप मूलत: दिल्ली से हैं।
आपकी योग, अध्यात्म और प्राकृतिक चिकित्सा ( नेचुरोपैथी ) में गहन रुचि है और कई वर्षों से मेलबर्न(ऑस्ट्रेलिया) में निशुल्क योग शिक्षा केन्द्र चला रही हैं।
आपका अंग्रेज़ी और हिंदी साहित्य से लगाव है और दोनों भाषाओं में कविताएं लिखती हैं। कुछ कविताएं स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है। एक काव्य संकलन पर काम कर रही हैं।
Author's Collection
Total Number Of Record :9शिव की भूख
एक बार शिव शम्भू को
लगी ज़ोर की भूख
भीषण तप से गया
कंठ का
हलाहल तक सूख !
देखा, चारों ओर
बर्फ ही बर्फ,
दिखी पथराई !
पार्वती के चूल्हे में भी
अग्नि नहीं दिखाई !
"तुम जो तप में डूबे स्वामी
मैं भी ध्यान में खोई
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कलम इतनी घिसो, पुर तेज़--- | ग़ज़ल
कलम इतनी घिसो, पुर तेज़, उस पर धार आ जाए
करो हमला, कि शायद होश में, सरकार आ जाए
खबर माना नहीं अच्छी, मगर इसमें बुरा क्या है
कि जूते पोंछने के काम ही अखबार आ जाए
दिखाओ ख्वाब जन्नत के, मगर इतना न बहकाओ
कहीं ऐसा न हो, वो बेच कर घर बार आ जाए
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मुहब्बत की जगह--- | ग़ज़ल
मुहब्बत की जगह, जुमला चला कर देख लेते हैं
ज़माने के लिए, रिश्ता चला कर देख लेते हैं
खरा हो या कि हो खोटा, खनक तो एक जैसी है
किसी कासे में ये सिक्का चला कर देख लेते हैं
हमारी जीभ से अक्सर फिसलने को तरसता है
है कितनी दूर का किस्सा, चला कर देख लेते हैं
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कलम इतनी घिसो... | ग़ज़ल
कलम इतनी घिसो, पुर तेज़, उस पर धार आ जाए
करो हमला, कि शायद होश में, सरकार आ जाए
खबर माना नहीं अच्छी, मगर इसमें बुरा क्या है
कि जूते पोंछने के काम ही अखबार आ जाए
दिखाओ ख्वाब जन्नत के, मगर इतना न बहकाओ
कहीं ऐसा न हो, वो बेच कर घर बार आ जाए
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बड़े साहिब तबीयत के... | ग़ज़ल
बड़े साहिब तबीयत के ज़रा नासाज़ बैठे हैं
हमे डर है गरीबों से तनिक नाराज़ बैठे हैं
महल के गेट पर, सोने की तख्ती पर लिखाया है
'यहां के तख्त पर सबसे बड़े फ़य्याज़ बैठे हैं'
नया फरमान आया है, परों में सर छुपाने का
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खयालों की जमीं पर... | ग़ज़ल
खयालों की जमीं पर मैं हकीकत बो के देखूंगी
कि तुम कैसे हो, ये तो मैं ,तुम्हारी हो के देखूंगी
तुम्हारे दिल सरीखा और भी कुछ है, सुना मैंने
किसी पत्थर की गोदी में मैं सर रख, सो के देखूंगी
है नक्शा हाथ में लेकिन भटकने का इरादा है
तुम्हारे शहर को मैं आज थोड़ा खो के देखूंगी
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चांद कुछ देर जो ... | ग़ज़ल
चांद कुछ देर जो खिड़की पे अटक जाता है
मेरे कमरे में गया दौर ठिठक जाता है
चांदनी सेज पर मखमल सी बिछा जाती है
सलवटों में कोई चंदन सा महक जाता है
तुम मेरे पास, बहुत पास चले आते हो
वक्त गुज़री हुई राहों में भटक जाता है
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कोई बारिश पड़े ऐसी... | ग़ज़ल
कोई बारिश पड़े ऐसी, जो रिसते घाव धो जाए
भले आराम कम आए, ज़रा सा दर्द तो जाए
बहुत चाहा कभी मैंने, मेरी मर्ज़ी चले थोड़ी
यही मर्ज़ी है अब मेरी, जो होना है,सो हो जाए
बड़ी छोटी थी वो ख्वाहिश, जिसे दिल में जगह दी थी
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बात छोटी थी... | ग़ज़ल
बात छोटी थी, मगर हम अड़ गए
सच कहें, लेने के देने पड़ गए
फूल थे, समझे कि हमसे बाग है
सूख कर पत्तों के जैसे झड़ गए
ले गए अपना हुनर बाज़ार में
शर्म के मारे वहीं पर गड़ गए
फिर ग़जल ने कर दिया ख़ारिज हमें
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