देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar

अशोक चक्रधर का जन्म 8 फरवरी 1951 को खुर्जा, उत्तर प्रदेश में हुआ।

आपने 1960 में अपनी पहली कविता देश के रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' को सुनाई और इस कविता पर काफी सराहना मिली।

1962 में एक कवि के रूप में अपना मंचीय जीवन आरम्भ किया। आपने कविता का पाठ पढ़कर "पं.सोहनलाल द्विवेदी" का आशीर्वाद भी प्राप्त किया।

अशोक चक्रधर बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। हास्य-कवि होने के अतिरिक्त आप धारावाहिक लेखक, कलाकार, निर्देशक, टेलीफ़िल्म लेखक भी हैं।

शिक्षा: एम.ए., एम.लिट., पी-एच.डी.

कुछ प्रमुख कृतियाँ - भोले भाले, तमाशा, चुटपुटकुले, सो तो है, हँसो और मर जाओ, ए जी सुनिए, इसलिए बौड़म जी इसलिए, खिड़कियाँ, बोल-गप्पे, जाने क्या टपके, देश धन्या पंच कन्या, चुनी चुनाई, सोची समझी।

 

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परदे हटा के देखो

ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हँसी के अंदर, परदे हटा के देखो।

लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।

चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।

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बहरे या गहरे

अचानक तुम्हारे पीछे
कोई कुत्ता भोंके,
तो क्या तुम रह सकते हो
बिना चोंके?

अगर रह सकते हो
तो या तो तुम बहरे हो,
या फिर बहुत गहरे हो!

- अशोक चक्रधर
[सोची-समझी, प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली]

 


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समंदर की उम्र

लहर ने
समंदर से
उसकी उम्र पूछी,
समंदर मुस्करा दिया।

लेकिन जब
बूँद ने
लहर से
उसकी उम्र पूछी
तो
लहर बिगड़ गई
कुढ़ गई
चिढ़ गई
बूँद के
ऊपर ही
चढ़ गई...और. . .
इस तरह
मर गई!

बूँद समंदर में समा गई
और. . .
समंदर की उम्र
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तुम' से 'आप'

तुम भी जल थे
हम भी जल थे
इतने घुले-मिले थे कि
एक-दूसरे से जलते न थे।
न तुम खल थे
न हम खल थे
इतने खुले-खिले थे कि
एक-दूसरे को खलते न थे।
अचानक तुम हमसे जलने लगे
तो हम तुम्हें खलने लगे।
तुम जल से भाप हो गए,
और 'तुम' से 'आप' हो गए।

- अशोक चक्रधर
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गति का कुसूर

क्या होता है कार में
पास की चीज़ें
पीछे दौड़ जाती हैं
तेज़ रफ़्तार में!

और यह शायद
गति का ही कुसूर है,
कि वही चीज
देर तक
साथ रहती है
जो जितनी दूर है ।

-अशोक चक्रधर

[सोची-समझी, प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली]

 


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नन्ही सचाई

एक डॉक्टर मित्र हमारे
स्वर्ग सिधार।
कोरोना से मर गए,
सांत्वना देने
हम उनके घर गए।

उनकी नन्ही-सी बिटिया
भोली-नादान थी
जीवन-मृत्यु से अनजान थी।

हमेशा की तरह
द्वार पर आई,
देखकर मुस्कुराई।
उसकी नन्ही सच्चाई
...

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