देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।
ग़ज़लें 
ग़ज़ल क्या है? यह आलेख उनके लिये विशेष रूप से सहायक होगा जिनका ग़ज़ल से परिचय सिर्फ पढ़ने सुनने तक ही रहा है, इसकी विधा से नहीं। इस आधार आलेख में जो शब्‍द आपको नये लगें उनके लिये आप ई-मेल अथवा टिप्‍पणी के माध्‍यम से पृथक से प्रश्‍न कर सकते हैं लेकिन उचित होगा कि उसके पहले पूरा आलेख पढ़ लें; अधिकाँश उत्‍तर यहीं मिल जायेंगे। एक अच्‍छी परिपूर्ण ग़ज़ल कहने के लिये ग़ज़ल की कुछ आधार बातें समझना जरूरी है। जो संक्षिप्‍त में निम्‍नानुसार हैं: ग़ज़ल- एक पूर्ण ग़ज़ल में मत्‍ला, मक्‍ता और 5 से 11 शेर (बहुवचन अशआर) प्रचलन में ही हैं। यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि किसी ग़ज़ल में सभी शेर एक ही विषय की निरंतरता रखते हों तो एक विशेष प्रकार की ग़ज़ल बनती है जिसे मुसल्‍सल ग़ज़ल कहते हैं हालॉंकि प्रचलन गैर-मुसल्‍सल ग़ज़ल का ही अधिक है जिसमें हर शेर स्‍वतंत्र विषय पर होता है। ग़ज़ल का एक वर्गीकरण और होता है मुरद्दफ़ या गैर मुरद्दफ़। जिस ग़ज़ल में रदीफ़ हो उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं अन्‍यथा गैर मुरद्दफ़।
Literature Under This Category
 
मैंने लिखा कुछ भी नहीं | ग़ज़ल  - डॉ सुधेश

मैंने लिखा कुछ भी नहीं
तुम ने पढ़ा कुछ भी नहीं ।

 
ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है | ग़ज़ल  - वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

 
फिर तेरी याद  - त्रिलोचन

फिर तेरी याद जो कहीं आई
नींद आने को थी नहीं आई

 
वसीम बरेलवी की ग़ज़ल  - वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा

 
भूल कर भी न बुरा करना | ग़ज़ल  - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

भूल कर भी न बुरा करना
जिस क़दर हो सके भला करना।

 
झील, समुंदर, दरिया, झरने उसके हैं | ग़ज़ल  - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

झील, समुंदर, दरिया, झरने उसके हैं
मेरे तश्नालब पर पहरे उसके हैं

 
तमाम घर को .... | ग़ज़ल  - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था

बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था

वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था

न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था

हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था

मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था

-ज्ञानप्रकाश विवेक

 
हो गई है पीर पर्वत-सी | दुष्यंत कुमार  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

 
राजगोपाल सिंह की ग़ज़लें  - राजगोपाल सिंह

राजगोपाल सिंह की ग़ज़लें भी उनके गीतों व दोहों की तरह सराही गई हैं। यहाँ उनकी कुछ ग़ज़लें संकलित की जा रही हैं।

 
इन चिराग़ों के | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

इन चिराग़ों के उजालों पे न जाना, पीपल
ये भी अब सीख गए आग लगाना, पीपल

 
यह दिल क्या है देखा दिखाया हुआ है  - त्रिलोचन

यह दिल क्या है देखा दिखाया हुआ है
मगर दर्द कितना समाया हुआ है

 
खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं  - वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi


खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं

 
मैं आपसे कहने को ही था | ग़ज़ल  - शमशेर बहादुर सिंह

मैं आपसे कहने को ही था, फिर आया खयाल एकायक
कुछ बातें समझना दिल की, होती हैं मोहाल एकायक

 
अदम गोंडवी की ग़ज़लें  - अदम गोंडवी

अदम गोंडवी को हिंदी ग़ज़ल में दुष्यन्त कुमार की परंपरा को आगे बढ़ाने वाला शायर माना जाता है। राजनीति, लोकतंत्र और व्‍यवस्‍था पर करारा प्रहार करती अदम गोंडवी की ग़ज़लें जनमानस की आवाज हैं। यहाँ उन्हीं की कुछ गज़लों का संकलन किया जा रहा है।

 
आँख पर पट्टी रहे | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाह-ए-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे

 
उदयभानु हंस की ग़ज़लें  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

उदयभानु हंस का ग़ज़ल संकलन

 
हमने अपने हाथों में  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

हमने अपने हाथों में जब धनुष सँभाला है,
बाँध कर के सागर को रास्ता निकाला है।

 
कुंअर बेचैन ग़ज़ल संग्रह  - कुँअर बेचैन

कुंअर बेचैन ग़ज़ल संग्रह - यहाँ डॉ० कुँअर बेचैन की बेहतरीन ग़ज़लियात संकलित की गई हैं। विश्वास है आपको यह ग़ज़ल-संग्रह पठनीय लगेगा।

 
अपना जीवन.... | ग़ज़ल  - कुँअर बेचैन

अपना जीवन निहाल कर लेते
औरों का भी ख़याल कर लेते

 
निराला की ग़ज़लें  - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

निराला का ग़ज़ल संग्रह - इन पृष्ठों में निराला की ग़ज़लें संकलित की जा रही हैं। निराला ने विभिन्न विधाओं में साहित्य-सृजन किया है। यहाँ उनके ग़ज़ल सृजन को पाठकों के समक्ष लाते हुए हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है।

 
भगत सिंह को पसंद थी ये ग़ज़ल  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

उन्हें ये फिक्र है हर दम नई तर्ज़-ए-जफ़ा क्या है
हमें ये शौक़ है देखें सितम की इंतिहा क्या है

 
माँ | ग़ज़ल  - निदा फ़ाज़ली

बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका, बासन, चिमटा, फूंकनी जैसी माँ

 
अपना ग़म लेके | ग़ज़ल  - निदा फ़ाज़ली

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये

 
घर से निकले ....  - निदा फ़ाज़ली

घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे
हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे

 
परदे हटा के देखो  - अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar

ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हँसी के अंदर, परदे हटा के देखो।

 
कभी कभी यूं भी हमने  - निदा फ़ाज़ली

कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है

 
तुम्हारे जिस्म जब-जब | ग़ज़ल  - कुँअर बेचैन

तुम्हारे जिस्म जब-जब धूप में काले पड़े होंगे
हमारी भी ग़ज़ल के पाँव में छाले पड़े होंगे

 
सुनाएँ ग़म की किसे कहानी  - अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ

Shaheed Ashfaq Ki Kalam Se

 
सूनापन रातों का | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

सूनापन रातों का, और वो कसक पुरानी देता है
टूटे सपने,बिखरे आँसू,कई निशानी देता है

 
यूँ तो मिलना-जुलना  - प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

यूँ तो मिलना-जुलना चलता रहता है
मिलकर उनका जाना खलता रहता है

 
चेहरे से दिल की बात | ग़ज़ल  - अंजुम रहबर

चेहरे से दिल की बात छलकती ज़रूर है,
चांदी हो चाहे बर्क चमकती ज़रूर है।

 
झूठों ने झूठों से  - राहत इंदौरी

झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो
सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो

 
छोटी सी बिगड़ी बात को  - अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया

छोटी सी बिगड़ी बात को सुलझा रहे हैं लोग
यह और बात है के यूँ उलझा रहे हैं लोग

 
सामने गुलशन नज़र आया | ग़ज़ल  - डॉ सुधेश

सामने गुलशन नज़र आया
गीत भँवरे ने मधुर गाया ।

फूल के संग मिले काँटे भी
ज़िन्दगी का यही सरमाया ।

उन की महफ़िल में क़दम मेरा
मैं बडी गुस्ताखी कर आया ।

आँख में भर कर उसे देखा
फिर रहा हूँ तब से भरमाया ।

चोट ऐसी वक्त ने मारी
गीत होंठों ने मधुर गाया ।

धुंध ऐसी सुबह को छाई
शाम का मन्जर नज़र आया ।

आँख टेढ़ी जब हुई उन की
ज़िन्दगी ने बस क़हर ढाया ।

 
कबीर की हिंदी ग़ज़ल  - कबीरदास | Kabirdas

क्या कबीर हिंदी के पहले ग़ज़लकार थे? यदि कबीर की निम्न रचना को देखें तो कबीर ने निसंदेह ग़ज़ल कहीं है:

 
ताज़े-ताज़े ख़्वाब | ग़ज़ल  - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

ताज़े-ताज़े ख़्वाब सजाये रखता है
यानी इक उम्मीद जगाये रखता है

 
किसी के दुख में .... | ग़ज़ल  - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

किसी के दुख में रो उट्ठूं कुछ ऐसी तर्जुमानी दे
मुझे सपने न दे बेशक, मेरी आंखों को पानी दे

 
इस नदी की धार में | दुष्यंत कुमार  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है

 
मैं रहूँ या न रहूँ | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

मैं रहूँ या न रहूँ, मेरा पता रह जाएगा
शाख़ पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जाएगा

 
हिन्‍दू या मुस्लिम के | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

 
सीता का हरण होगा  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

कब तक यूं बहारों में पतझड़ का चलन होगा?
कलियों की चिता होगी, फूलों का हवन होगा ।

 
कोई फिर कैसे.... | ग़ज़ल  - कुँअर बेचैन

कोई फिर कैसे किसी शख़्स की पहचान करे
सूरतें सारी नकाबों में सफ़र करती हैं

 
भटकता हूँ दर-दर | ग़ज़ल  - त्रिलोचन

भटकता हूँ दर-दर कहाँ अपना घर है
इधर भी, सुना है कि उनकी नज़र है

 
दर्द के पैबंद | ग़ज़ल  - रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया

मखमली चादर के नीचे दर्द के पैबंद हैं
आपसी रिश्तों के पीछे भी कई अनुबंध हैं।

 
फिर नये मौसम की | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

फिर नये मौसम की हम बातें करें
साथ खुशियों, ग़म की हम बातें करें

जगमगाते थे दिए भी साथ में
फिर भला क्यूँ, तम की हम बातें करें

 
दिन में जो भी प्यारा | ग़ज़ल  - प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

दिन में जो भी प्यारा मंज़र लगता है
अंधियारे में देखो तो डर लगता है

 
मैं अपनी ज़िन्दगी से | ग़ज़ल  - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

मैं अपनी ज़िन्दगी से रूबरू यूँ पेश आता हूँ
ग़मों से गुफ़्तगू करता हूँ लेकिन मुस्कुराता हूँ

 
मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ | दुष्यंत कुमार  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ
वो गज़ल आपको सुनाता हूँ।

 
अजनबी नज़रों से | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

अजनबी नज़रों से अपने आप को देखा न कर
आइनों का दोष क्या है? आइने तोड़ा न कर

 
काजू भुने पलेट में | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

 
सपने अगर नहीं होते | ग़ज़ल  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

मन में सपने अगर नहीं होते,
हम कभी चाँद पर नहीं होते।

सिर्फ जंगल में ढूँढ़ते क्यों हो?
भेड़िए अब किधर नहीं होते।

जिनके ऊँचे मकान होते हैं,
दर-असल उनके घर नहीं होते।

 
तुमने हाँ जिस्म तो... | ग़ज़ल  - रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

तुमने हाँ जिस्म तो आपस में बंटे देखे हैं
क्या दरख्तों के कहीं हाथ कटे देखे हैं

 
झरे हों फूल गर पहले | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

झरे हों फूल गर पहले, तो फिर से झर नहीं सकते
मुहब्बत डालियों से फिर, कभी वो कर नहीं सकते

 
कुछ न किसी से कहें जनाब | ग़ज़ल  - रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया

कुछ न किसी से कहें जनाब
अच्छा है चुप रहें जनाब

 
कलम इतनी घिसो, पुर तेज़--- | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

कलम इतनी घिसो, पुर तेज़, उस पर धार आ जाए
करो हमला, कि शायद होश में, सरकार आ जाए

 
वही टूटा हुआ दर्पण  - रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

वही टूटा हुआ दर्पण बराबर याद आता है
उदासी और आँसू का स्वयंवर याद आता है

 
भरोसा इस क़दर मैंने | ग़ज़ल  - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

भरोसा इस क़दर मैंने तुम्हारे प्यार पर रक्खा
शरारों पर चला बेख़ौफ़, सर तलवार पर रक्खा

 
मौज-मस्ती के पल भी आएंगे | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

मौज-मस्ती के पल भी आएंगे
पेड़ होंगे तो फल भी आएंगे

 
घर में ठंडे चूल्हे पर | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है

 
जी रहे हैं लोग कैसे | ग़ज़ल  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

जी रहे हैं लोग कैसे आज के वातावरण में,
नींद में दु:स्वप्न आते, भय सताता जागरण में।

 
बीता मेरे साथ जो अब तक | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

बीता मेरे साथ जो अब तक, वो बतलाने आई हूँ
जीवन के इस उलझेपन को मैं सुलझाने आई हूँ

 
पुराने ख़्वाब के फिर से | ग़ज़ल  - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

पुराने ख़्वाब के फिर से नये साँचे बदलती है
सियासत रोज़ अपने खेल में पाले बदलती है

 
जिस्म क्या है | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

 
काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे
जब तलक़ ज़िन्दा रहे बचपन को दुलराते रहे

 
तुम मेरी बेघरी पे...  - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

तुम मेरी बेघरी पे बड़ा काम कर गए
कागज का शामियाना हथेली पर धर गए

 
दिल पे मुश्किल है....  - कुँअर बेचैन

दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना

 
किसी के आँसुओं पर | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

किसी के आँसुओं पर, ख़्वाब का घर बन नहीं सकता
भरी बरसात में फिर, शामियाना तन नहीं सकता

 
ज़िन्दगी इतनी भी आसान नहीं | ग़ज़ल  - रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया

ज़िन्दगी इतनी भी आसान नहीं
कौन है जो कि परेशान नहीं

 
मुहब्बत की जगह--- | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

मुहब्बत की जगह, जुमला चला कर देख लेते हैं
ज़माने के लिए, रिश्ता चला कर देख लेते हैं

 
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख | ग़ज़ल  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।

 
जो डलहौज़ी न कर पाया | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे

 
बदलीं जो उनकी आँखें  - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

बदलीं जो उनकी आँखें, इरादा बदल गया ।
गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया ।

 
जितने पूजाघर हैं | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

जितने पूजाघर हैं सबको तोड़िये
आदमी को आदमी से जोड़िये

 
वो कभी दर्द का...  - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

वो कभी दर्द का चर्चा नहीं होने देता
अपने जख्मों का वो जलसा नहीं होने देता

 
दो-चार बार... | ग़ज़ल  - कुँअर बेचैन

दो-चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

 
लम्हा इक छोटा सा फिर | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

लम्हा इक छोटा सा फिर उम्रे दराजाँ दे गया
दिल गया धड़कन गयी और जाने क्या-क्या ले गया

 
कलम इतनी घिसो... | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

कलम इतनी घिसो, पुर तेज़, उस पर धार आ जाए
करो हमला, कि शायद होश में, सरकार आ जाए

 
किनारा वह हमसे  - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'

किनारा वह हमसे किये जा रहे हैं।
दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं।

 
लूटकर ले जाएंगे | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

लूटकर ले जाएंगे सब देखते रह जाओगे
पत्थरों की वन्दना करने से तुम क्या पाओगे

 
करो हम को न शर्मिंदा..  - कुँअर बेचैन

करो हम को न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा
हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा

 
कभी तुम दूर जाते हो | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

कभी तुम दूर जाते हो, कभी तुम पास आते हो
कभी हमको हँसाते हो, कभी हमको रुलाते हो

 
तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है

 
बड़े साहिब तबीयत के... | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

बड़े साहिब तबीयत के ज़रा नासाज़ बैठे हैं
हमे डर है गरीबों से तनिक नाराज़ बैठे हैं

 
मेरी औक़ात का...  - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

मेरी औक़ात का ऐ दोस्त शगूफ़ा न बना
कृष्ण बनता है तो बन, मुझको सुदामा न बना

 
बग़ैर बात कोई | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

बग़ैर बात कोई किसका दुख बँटाता है
वो जानता है मुझे इसलिए रुलाता है

 
ये सारा जिस्म झुककर  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सज़दे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा

 
यूँ जीना आसान नहीं है | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

यूँ जीना आसान नहीं है,इस दुनिया के इस मेले में
ईश के दर पे रख दे सर को, क्यूँ तू पड़े झमेले में

 
धूप से छाँव की.. | ग़ज़ल  - कुँअर बेचैन

धूप से छाँव की कहानी लिख
आह से आँसुओं की बानी लिख

 
खयालों की जमीं पर... | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

खयालों की जमीं पर मैं हकीकत बो के देखूंगी
कि तुम कैसे हो, ये तो मैं ,तुम्हारी हो के देखूंगी

 
जिस तिनके को ...  - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

जिस तिनके को लोगों ने बेकार कहा था
चिड़िया ने उसको अपना संसार कहा था

 
आजकल हम लोग ... | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

आजकल हम लोग बच्चों की तरह लड़ने लगे
चाबियों वाले खिलौनों की तरह लड़ने लगे

 
स्वप्न सब राख की...  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

स्वप्न सब राख की ढेरियाँ हो गए,
कुछ जले, कुछ बुझे, फिर धुआँ हो गए।  

 
किसी की आँख में आँसू | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

किसी की आँख में आँसू, किसी की आँख में सपने
पराए हैं कहीं घर के, कहीं अनजान भी अपने

 
मेरे इस दिल में.. | ग़ज़ल  - कुँअर बेचैन

मेरे इस दिल में क्या है क्या नहीं है
अभी तक मैंने ये सोचा नहीं है

 
तू इतना कमज़ोर न हो  - राजगोपाल सिंह

तू इतना कमज़ोर न हो
तेरे मन में चोर न हो

जग तुझको पत्थर समझे
इतना अधिक कठोर न हो

बस्ती हो या हो फिर वन
पैदा आदमखोर न हो

सब अपने हैं सब दुश्मन
बात न फैले, शोर न हो

सूरज तम से धुँधलाए
ऐसी कोई भोर न हो

 
अब अँधेरों से लिपटकर | ग़ज़ल  - भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

अब अँधेरों से लिपटकर यूँ ना रोया कीजिए
हो घड़ी भर के लिए पर, कुछ तो सोया कीजिए

 
बैठे हों जब वो पास  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

बैठे हों जब वो पास, ख़ुदा ख़ैर करे
फिर भी हो दिल उदास, ख़ुदा ख़ैर करे

 
ऐसे कुछ और सवालों को | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

ऐसे कुछ और सवालों को उछाला जाये
किस तरह शूल को शूलों से निकाला जाये

फिर चिराग़ों को सलीक़े से जलाना होगा
तम है जिस छोर, उसी ओर उजाला जाये

ये ज़रूरी है कि ख़यालों पे जमी काई हटे
फिर से तहज़ीब के दरिया को खँगाला जाये

 फावड़े और कुदालें भी तो ढल सकती हैं
अब न इस्पात से ख़ंज़र कोई ढाला जाये

-राजगोपाल सिंह

 
धरती मैया | ग़ज़ल  - राजगोपाल सिंह

धरती मैया जैसी माँ
सच पुरवैया जैसी माँ
 
पापा चरखी की डोरी
इक कनकैया जैसी माँ

तूफ़ानों में लगती है
सबको नैया जैसी माँ

बाज़ सरीखे सब नाते
इक गौरैया जैसी माँ

-राजगोपाल सिंह

 
वो मेरे घर नहीं आता  - वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअ'ल्लुक़ मर नहीं जाता

 
चांद कुछ देर जो ... | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

चांद कुछ देर जो खिड़की पे अटक जाता है
मेरे कमरे में गया दौर ठिठक जाता है

 
सबके अपने-अपने ग़म  - रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया

सबके अपने-अपने ग़म
कुछ के ज़्यादा, कुछ के कम

 
कोई बारिश पड़े ऐसी... | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

कोई बारिश पड़े ऐसी, जो रिसते घाव धो जाए
भले आराम कम आए, ज़रा सा दर्द तो जाए

 
बात छोटी थी... | ग़ज़ल  - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

बात छोटी थी, मगर हम अड़ गए
सच कहें, लेने के देने पड़ गए

 
यह चिंता है | ग़ज़ल  - त्रिलोचन

यह चिंता है वह चिंता है
जी को चैन कहाँ मिलता है

 
बदन पे जिसके...   - गोपालदास ‘नीरज’

बदन पे जिसके शराफत का पैरहन देखा 
वो आदमी भी यहाँ हमने बदचलन देखा 

 
अपनी छत को | ग़ज़ल  - विजय कुमार सिंघल

अपनी छत को उनके महलों की मीनारें निगल गयीं
धूप हमारे हिस्से की ऊँची  दीवारें निगल गयीं

 
झेप अपनी मिटाने निकले हैं  - विजय कुमार सिंघल

झेप अपनी मिटाने निकले हैं
फिर किसी को चिढ़ाने निकले हैं

 
तुम्हारे पाँव के नीचे----  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

 
बिस्तरा है न चारपाई है  - त्रिलोचन

बिस्तरा है न चारपाई है
जिंदगी ख़ूब हम ने पाई है

 
दुख में नीर बहा देते थे  - निदा फ़ाज़ली

दुख में नीर बहा देते थे सुख में हँसने लगते थे
सीधे-सादे लोग थे लेकिन कितने अच्छे लगते थे

 
अब के सावन में  - गोपालदास ‘नीरज’

अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई

 
सफ़र में धूप तो होगी | ग़ज़ल  - निदा फ़ाज़ली

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

 
गले मुझको लगा लो | ग़ज़ल  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ए यार होली में।

 
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ग़ज़ल  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया ।
ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया ॥

 
एक ऐसी भी घड़ी आती है | ग़ज़ल  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

एक ऐसी भी घड़ी आती है
जिस्म से रूह बिछुड़ जाती है

 
दुख में भी परिचित मुखों को  - त्रिलोचन

दुख में भी परिचित मुखों को तुम ने पहचाना है क्या
अपना ही सा उन का मन है यह कभी माना है क्या

 
चुप क्यों न रहूँ | ग़ज़ल  - त्रिलोचन

चुप क्यों न रहूँ हाल सुनाऊँ कहाँ कहाँ
जा जा के चोट अपनी दिखाऊँ कहाँ कहाँ

 
मेरा दिल वह दिल है | ग़ज़ल  - त्रिलोचन

मेरा दिल वह दिल है कि हारा नहीं है
कहीं तिनके का भी सहारा नहीं है

 
उसे यह फ़िक्र है हरदम  - भगत सिंह

 
कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है  - वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi

कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है

 
ये जो शहतीर है | ग़ज़ल  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो

 
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

 
कहाँ तो तय था चराग़ाँ  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

 
आज जो ऊँचाई पर है...  - कुँअर बेचैन

आज जो ऊँचाई पर है क्या पता कल गिर पड़े
इतना कह के ऊँची शाख़ों से कई फल गिर पड़े

 
कृष्ण सुकुमार की ग़ज़लें  - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

कृष्ण सुकुमार की ग़ज़लें

 
दर्द की सारी लकीरों.... | ग़ज़ल   - विजय कुमार सिंघल

दर्द की सारी लकीरों को छुपाया जाएगा
उनकी ख़ातिर आज हर चेहरा सजाया जाएगा

 
इसको ख़ुदा बनाकर | ग़ज़ल  - विजय कुमार सिंघल

इसको ख़ुदा बनाकर उसको खुदा बनाकर 
क्यों लोग चल रहे हैं बैसाखियां लगाकर

 
बड़ी नाज़ुक है डोरी | ग़ज़ल   - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

बड़ी नाज़ुक है डोरी साँस की यह 
कहीं टूटी तो बाकी क्या रहेगा

 
प्रेम देश का... | ग़ज़ल   - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

प्रेम देश का ढूंढ रहे हो गद्दारों के बीच
फूल खिलाना चाह रहे हो अंगारों के बीच

 
दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें  - दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें - इस पृष्ठ पर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें संकलित की गई हैं। हमारा प्रयास है कि दुष्यंत कुमार की सभी उपलब्ध ग़ज़लें यहाँ सम्मिलित हों।

 
तेरे भीतर अगर नदी होगी | ग़ज़ल  - शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi

तेरे भीतर अगर नदी होगी
तो समंदर से दोस्ती होगी

 
जिस तरफ़ देखिए अँधेरा है | ग़ज़ल  - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

जिस तरफ़ देखिए अँधेरा है
यह सवेरा भी क्या सवेरा है

 
प्रतिपल घूंट लहू के पीना | ग़ज़ल  - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

प्रतिपल घूँट लहू के पीना,
ऐसा जीवन भी क्या जीना ।

 
बात हम मस्ती में ऐसी कह गए | ग़ज़ल  - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

बात हम मस्ती में ऐसी कह गए,
होश वाले भी ठगे से रह गए।

 
सामने आईने के जाओगे  - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'

सामने आईने के जाओगे?
इतनी हिम्मत कहां से लाओगे?

 
बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से  - विजय कुमार सिंघल

बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से
इस दुनिया के लोग बना लेते हैं परबत राई से।

 
जंगल-जंगल ढूँढ रहा है | ग़ज़ल  - विजय कुमार सिंघल

जंगल-जंगल ढूँढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को
कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को

 
इश्क और वो इश्क की जांबाज़ियाँ | ग़ज़ल  - उपेन्द्रनाथ अश्क | Upendranath Ashk

इश्क और वो इश्क की जांबाज़ियाँ
हुस्न और ये हुस्न की दम साज़ियाँ

 
डॉ सुधेश की ग़ज़लें  - डॉ सुधेश

डॉ सुधेश दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिन्दी के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त हैं। आप हिंदी में विभिन्न विधाओ में सृजन करते हैं। यहाँ आपकी ग़ज़लेंसंकलित की गई हैं।

 
लोग क्या से क्या न जाने हो गए | ग़ज़ल  - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

लोग क्या से क्या न जाने हो गए
आजकल अपने बेगाने हो गए

बेसबब ही रहगुज़र में छोड़ना
दोस्ती के आज माने हो गए

आदमी टुकडों में इतने बँट चुका
सोचिए कितने घराने हो गए

वक्त ने की किसकदर तब्दीलियाँ
जो हकीकत थे फसाने हो गए

 
बिला वजह आँखों के कोर भिगोना क्या | ग़ज़ल  - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

बिला वजह आँखों के कोर भिगोना क्या
अपनी नाकामी का रोना रोना क्या

 
नहीं कुछ भी बताना चाहता है | ग़ज़ल  - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

नहीं कुछ भी बताना चाहता है
भला वह क्या छुपाना चाहता है

तिज़ारत की है जिसने आँसुओं की
वही ख़ुद मुस्कुराना चाहता है

 
हौसले मिटते नहीं  - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

हौसले मिटते नहीं अरमाँ बिखर जाने के बाद
मंजिलें मिलती है कब तूफां से डर जाने के बाद

 
कौन यहाँ खुशहाल बिरादर  - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

कौन यहाँ खुशहाल बिरादर
बद-से-बदतर हाल बिरादर

 
उलझे धागों को सुलझाना  - डॉ शम्भुनाथ तिवारी

उलझे धागों को सुलझाना मुश्किल है
नफरतवाली आग बुझाना मुश्किल है

 
ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़लें  - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

प्रस्तुत हैं ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़लें !

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