नौकरी का नियुक्ति-पत्र मिला तो खुशी से उसकी आँखों में आँसू आ गए। इस नौकरी की प्रतियोगी परीक्षा के लिए उसने जी तोड़ मेहनत की थी। ईश्वर और वृद्ध माता के चरणों में नियुक्ति-पत्र रखकर, वह लपकता हुआ, पड़ोस के अंकल का आशीर्वाद लेने पहुँचा, जिनका बेरोजगार पुत्र उसका अभिन्न मित्र था।
आशा के विपरीत, अनमनेपन से आशीर्वाद देते हुए अचानक अंकल ने पूछा, "बेटा, एक बात तो बता, कितने पैसे दिये थे, इस नौकरी के लिए...?" उल्लास से दमकता उसका मन सहसा बुझ गया, इस अप्रत्याशित प्रश्न से, अचानक चली हवा से बुझने वाले दीपक की तरह...। नौकरी मिलने की खुशी आधी रह गयी थी, अपनों के, इस मिथ्या आरोप से...।
अंकल के शब्द......ईर्ष्या का भाव था या सामाजिक कुरीतियों के प्रति, उनकी गहरी आस्था?"
वह कोई फैसला न कर सका।
-सन्तोष सुपेकर
31, सुदामा नगर, उज्जैन ( भारत)
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