"यात्रीगण कृपया ध्यान दें। निजामुद्दीन से चलकर हैदराबाद को जाने वाली दक्षिण एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से एक घण्टा विलम्ब से चल रही है...... यात्रीगण कृपया ध्यान दें" ... उद्घोषिका बार-बार इस सूचना को प्रसारित कर रही थी।
दक्षिण एक्सप्रेस ही क्या प्राय़ः सभी गाड़ियाँ कोहरे की वज़ह से विलम्ब से चल रही है। पूरा प्लेटफ़ार्म यात्रियों से खचाखच भरा हुआ है। हर कोई अपने आप में व्यस्त है। कोई मोबाइल पर चिटचैट करने में लगा है, तो कोई अपना सामान इधर से उधर ज़माने में लगा है। कोई सीट पर कुण्डली मारे बैठा, अनमने मन से अख़बार के पन्ने पलट रहा है, तो कोई किसी पत्रिका के. सामान बेचने वाले वैण्डर अपनी ठिलिया लेकर इधर से उधर चक्कर लगा रहे है। उन्हें उम्मीद है कि कोई न कोई सामान तो बिक ही जाएगा। चाय बेचने वाले भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। वे भी अपनी केतली उठाए इधर से उधर डोल रहे थे। बड़े-बूढ़े अपने सामान की सुरक्षा में सतर्क बैठे थे, जबकि युवातुर्क कान में इअर-फ़ोन और आँखों पर सनग्लास चढ़ाए चढ़ाए, एक सिरे से चलते हुए दूर तक निकल जाते और फिर बड़ी शान से, धीरे-धीरे चलते हुए अपनी जगह पर वापिस लौट आते। सफ़ाई कर्मी मुस्तैदी के साथ प्लेटफ़ार्म की सफ़ाई में लगे हुए थे। सफ़ाई कर्मी, सफ़ाई करते हुए आगे निकलता कि दूसरा यात्री कोई न कोई अनुपयोगी वस्तु बिखेर देता। इन हरकतों को देख वह अपने दूसरे सफ़ाई कर्मी से शिकायत भरे शब्दों में कहता-" कब सुधरेंगे हमारे यहाँ के लोग? जगह-जगह डस्टबीन रखे हुए हैं लेकिन उनमें कचरा न डालकर लोग फ़र्श पर बिखेर देते हैं। शर्म नाम की तो कोई चीज ही नहीं बची है। समझाओं, तो झगड़ा-फ़साद करने बैठ जाते हैं। कचरा पड़ा देखकर सुपरवाईजर अलग खरी-खोटी सुनाता है। अपने मन का गुबार निकाल कर फिर वह अपने काम में जुट गया था। लाल कुर्ता पहने कुली इस आशा को लिए इधर से उधर चक्कर काटते दीखते कि कोई न कोई काम तो मिल ही जाएगा। किसी को सीट चाहिए होती है, तो किसी के पास ज़रूरत से ज़्यादा सामान होता है। उन्हें काम तो मिल जाता है लेकिन मोल-भाव को लेकर काफ़ी चिकचिक चलती है, तब जाकर कोई सौदा पटता है।
"यात्रीगण कृपया ध्यान दें..." उद्घोषिका का स्वर माइक पर गूंजता है। वह अभी पूरा वाक्य भी नहीं बोल पायी थी कि यात्रियों के कान सजग हो उठते है। मन में खदबदी-सी मचने लगती है कि पता नहीं कौन-सी ट्रेन आने वाली है। वाक्य पूरा हो इसके पहले पूरे प्लेटफ़ार्म पर पसरा कोलाहल थम-सा जाता है। वाक्य पूरा होते ही यात्री अपने-अपने सामान समेटने लगता है। कौन-सा डिब्बा कहाँ लगेगा, स्क्रीन पर दिखाया जाने लगता है। लोग इधर से उधर भाग-दौड़ लगाने लगते है। कुछ युवा तुर्क प्लेटफ़ार्म के एकदम किनारे पर खड़े होकर, आने वाली ट्रेन को देखने के लिए कभी इधर, तो कभी उधर देखते हैं। इनमें से कई तो ऎसे भी है, जिनको पता ही नहीं होता कि गाड़ी किस दिशा से आने वाली है।
गाड़ी धीरे-धीरे रेंगते हुए आकर ठहर जाती है। उतरने वाला यात्री उतर भी नहीं पाता कि चढ़ने वाले किसी तरह डिब्बे में प्रवेश कर जाना चाहते है। एक अघोषित मल्ल-युद्ध मचने लगता है इस समय। थोड़ी देर में माहौल शांत होने लगता है। ट्रेन अब अपनी जगह से चलने लगी है। कुछ मनचले लड़के दौड़कर डिब्बे में सवार होने के लिए रेस लगा रहे थे। ट्रेन ने अब स्पीड पकड़ ली थी। ट्रेन के गुजर जाने के बाद भी भीड़ में कमी नहीं हुई थी।
एक ट्रेन अभी गुजरी भी नहीं थी कि दूसरी आकर खड़ी हो गई. ट्रेन के आते ही भगदड़ मच गई. कोई इधर से दौड़ लगाता, कोई उधर से। उतरने वालों और सवार होने वाले पैसेंजरों के बीच तू...तू...मैं...मैं। मचने लगी। ट्रेन चुंकि सुपरफ़ास्ट थी और उपर से विलम्ब से भी चल रही थी, फिर स्टापेज भी काफ़ी कम समय के लिए ही था। इसलिए ये सब तो होना ही था।
दो-ढाई घण्टे में चार-पांच ट्रेने आयीं और चली गई. किसी दूसरी ट्रेन के आने में अभी विलम्ब था। सब्जी-पूड़ी की ठिलिया लगाने वाले रामदीन ने बड़े इत्मिनान से माथे पर-पर चू रहे पसीने को अपने गमझे से पोंछा और अब वह नोट गिनने का उपक्रम करने लगा था। इस बीच उसकी जमकर कमाई हुई थी। नोट गिन लेने के बाद उसने नोटॊं की गड्डी को अपनी पतलून के जेब में ठूंस कर भरा और लोगों की नजरें बचाते हुए उसने तम्बाखू की डिब्बी निकाली। जर्दा निकाला और चुने से मलते हुए अपने होंठो के नीचे दबा लिया।
काम की व्यस्तता के बावजूद उसकी नजरें कुली कल्लु पर जमी हुई थी। कई ट्रेनों के गुजर जाने के बावजूद भी वह रेलिंग से पीठ टिकाए बैठा था। अनमना सा। उदास सा। पल भर को भी अपनी जगह से हिला तक नहीं था। सोच में पड़ गया था रामदीन कि ज़रूर कोई न कोई दुख साल रहा होगा उसे, वरना एक मस्त तबीयत का आदमी, कभी इस तरह सूरत लटकाए बैठ सकता है? । उससे अब रहा नहीं गया।
"का बात है कल्लु भइया...काहे सूरत उतारे बैठे हो? ज़रूर कोई बात है, वरना तुम कभउ अएसन बैठे नाहीं दिखे। तबियत-वबियत तो ठीक है ना तुम्हारी?" रामदीन ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा था। सहानुभूति में पगे दो शब्दों को सुनकर उसकी आँखे नम हो उठी थीं। किसी तरह छलछला आए आंसुओं को रोकते हुए उसने कहा-
"अइसी वइसी कोनु बात नई है रे...बस यूं ही..."
" ज़रूर, कोई न कोई बात तो है... वरना तुम इस तरह उदासी ओढ़े कभी बैठे रहे हो भला? । खुश तबीयत होती तो अब तक दो-तीन सौ तो कमा ही लेते। देखो भइया...तुम्हारा हमारा आज का साथ नहीं है। बरसों बरस से हम एक दूसरे को जानते हैं...एक दूसरे के दुख-सुख के साथी रहे हैं। न तो हमारी कोई बात तुमसे छिपी है और न ही तुम्हारी बात हमसे छिपी है। तुम्हारी हालत देखकर समझा जा सकता है कि तुम किसी बात को लेकर दुखी ज़रूर हो। कहते हैं कि अपना दुख उजागर कर देने से मन हलका हो जाता है...दुख आधा हो जाता है...बताओ तो आख़िर का बात है?
"आख़िर बतलाए भी तो क्या बतलाए कल्लु कि उसका बेटा जो महानगर में एक बड़ा अफ़सर है, उसे अपने साथ शहर लिवा ले जाने के लिए तीन दिन से यहाँ डेरा डाले बैठा है। उसका अपना तर्क है कि-कि मुझे अपना पुश्तैनी मकान और खेत-बाड़ी बेच-बाच कर उसके साथ रहना चाहिए. उसका तो यह भी कहना है कि उसे मेरे स्वास्थ्य आदि को लेकर गहरी चिंता बनी रहती है लेकिन लंबी दूरी रहने के कारण वह बार-बार नहीं आ सकता। साथ रहेंगे तो हमें बेफ़िक्री बनी रहेगी। फिर चिंटु भी तो आपकी ख़ूब याद करता है। उसे आपका साथ मिल जाएगा। सच कहता है बेटा कि मुझे साथ चले जाना चाहिए. तभी उसे अपनी बहू अलका कि याद हो आयी... याद हो आए वे कड़ुवे पल जब उसकी हरकतों को देखकर उसका दिल छलनी-छलनी हो गया था। उसे खून के आंसू बहाने पड़े थे। यदि लगातार का साथ बना रहा तो वह और भी नीच हरकतें कर सकती है। बेटे से शिकायत भी करेगा तो कितनी बार करेगा? जाहिर है कि उनके बीच अप्रत्याशित तकरारें बढ़ेगी और संभव है कि उनकी घर-गृहस्थी में दरार पड़ जाएगी... घर नर्क बन जाएगा...वह ऎसा होता हुआ वह हरगिज़ नहीं देख सकेगा...वह उन दोनों के बीच खलनायक नहीं बनना चाहेगा। अपने दुखों को मित्रो के बीच बांटना उचित नहीं है। ऎसा करने से उसकी जग हंसाई ही होगी और उनकी नजरों में बेटे की साख भी गिर जाएगी...नहीं...नहीं वह अपने दुखों की गठरी किसी पर नहीं खोलेगा" । वह कुछ और सोच पाता इसी बीच एनाउन्सर की आवाज़ गूंजने लगी थी, शायद किसी ट्रेन के आने का वक़्त हो गया था। ट्रेन के आगमन की सूचना पाकर उठ खड़ा हुआ और अपनी ठिलिया सजाने लगा था।
रामदीन के जाते ही कल्लु फिर अपनी विचारों की दुनिया में वापिस लौट आया था। स्मृतियों के पन्ने फिर तेजी से फ़ड़फ़ड़ाने लगे थे और वह अतीत की गहराइयों में उतरकर डूब-चूभ होने लगा था।
उसके पोते का जन्म दिन था। फ़ोन पर चिंटू था। सबसे पहले उसने ' दादाजी पायलागु"कहा। सुनते ही उसके शरीर में रोमांच हो आया था।" दादा जी, परसों मेरा जन्म-दिन है। आपको आना पड़ेगा। आपके बगैर मुझे अच्छा नहीं लगेगा। मैंने पापा जी से कह दिया है कि अगर आप नहीं आओगे, तो मैं अपना जन्मदिन नहीं मनाउंगा। आज ही आप टिकिट कटवा लें। कल सुबह तक आप यहाँ पहुँच जाएंगे " । ना करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। उसने हामी भर दी थी और रात की ट्रेन का रिजर्वेशन करवा लिया।
अपने पोते से मिलने को वह उतावला हुआ जा रहा था। कई दिनों से वह सोच भी रहा था कि एक बार उससे मिल आना चाहिए. लेकिन चाह कर भी वह नहीं जा सका था। जाने से पहले उसने अपने प्रिय पोते के लिए एक बड़ा-सा खिलौना खरीदा। बनारसी की मिठाई की दुकान से एक किलो का डिब्बा पैक करवाया और जयराम की दुकान से अपने बेटे के लिए सूट का कपड़ा और बहूरानी के लिए साड़ी पैक करवायी।
ट्रेन अपने निर्धारित समय से दो घंटा विलम्ब से चल रही थी। ट्रेन को विलम्ब से चलता देख उसे खीझ होने लगी थी। मन में बेचैनी बढ़ने लगी थी। वह जल्द से जल्द शहर पहुँच जाना चाहता था, लेकिन मजबूरी थी। वह कर भी क्या सकता था? । वैसे तो अपने जीवन में वह लेट चलने वाली ट्रेनों को देखता आया है। तब उसके मन में न तो किसी प्रकार का रोष पैदा हुआ था और न ही खीज पैदा हुई थी। ट्रेन के इन्तजार में बैठा वह सोचने लगा था कि काश यदि उसके पंख होते, तो बिना समय गवांए वह कभी का वहाँ जा पहुँचता।
आखिर इन्तजार की घड़ियाँ समाप्त हुई. ट्रेन छुक-छुक करती प्लेटफ़ार्म पर आकर ठहर गई थी। अपनी निर्धारित सीट पर बैठते हुए उसने अपने सूटकेस को चेन से कसा और ताला जड़ दिया। अब वह इत्मिनान से सफ़र कर सकता है।
खिड़की पर उसकी अपनी मित्र मंडली जमी हुई थी। एक कहता-"भैये...अब जमकर रहना बेटे के पास। हो सके तो वहीं रुक जाने का मन बना लेना। उसका वाक्य पूरा भी नहीं हो पाता तो दूसरे ने चहक कर कहा-हाँ...हाँ तुमने पते की बात की है। इन्हें अब बेटे के पास ही रहना चाहिए. बुढ़ाती देह को किसी न किसी का सहारा तो होना ही चाहिए न! । भाभी होती तो अड़ी समय में देखभाल करती। पता नहीं रात-बिरात क्या कुछ हो जाए? । ईश्वर करे, ऎसा न हो, लेकिन नियति का क्या ठिकाना, कब क्या घट जाए? । तीसरे ने कहा-तुम लोग ठीक सलाह दे रहे हो, पर भाई माने तब न। बेटा कितनी मिन्नते करता रहता है कि साथ रहना चाहिए. पर ये ज़िद पकड़े बैठे हैं कि यहीं ठीक हूँ। पता नहीं तीन कमरों के छोटे से मकान का मोह ही नहीं छूट पा रहा है इनका। अब चौथे की बारी थी-" इनकी जगह मैं होता न! तो कभी का बेटे के पास चला जाता। अरे...हम अपने बेटा-बेटियों को पढ़ाते-लिखाते ही इसलिए हैं कि वे एक दिन बड़ा आदमी बने...एक अफ़सर बने और हम गर्व के साथ उनके बीच रहकर शेष जीवन काट सके. जितने मुंह उतनी बातें। वह गम्भीरता से सबकी बातें सुनता रहा था।
सिग्नल दिया जा चुका था। ट्रेन के छूटने का समय हो चला था। सबकी ओर मुख़ातिब होते हुए.वह केवल इतना ही कह पाया था-" आप सब लोगों ने उचित सलाह ही दी है। मुझे ख़ुशी हुई आप लोगों की बात सुनकर। लेकिन मैं अब तक इस शहर को छोड़ने का मानस नहीं बना पाया। मन है कि मानता ही नहीं। अब तुम्हीं बताओ... बचपन से लेकर अब तक मैं इसी शहर में पला-बढ़ा। पूरा जीवन आप लोगों के बीच रह कर बिताया। आप लोगों के बीच रह कर सुख-दुख दोनों भोगे। मैं आप लोगों से इतना घुलमिल गया हूँ कि दूर चले जाने की कल्पना मात्र से दिल में घबराहट होने लगती है। वह और कुछ कह पाता कि ट्रेन चल निकली। अश्रुपुरित नेत्रों से वह सभी को हाथ हिला-हिलाकर अभिवादन करता रहा था, जब तक कि वे आंखों से ओझल नहीं हो गए थे।
पूरी रात वह चैन की नींद सो नहीं पाया था। अपने पोते के साथ बिताए दिनों की याद करते हुए उसके शरीर में गुदगुदी होने लगी थी। कभी उसे घोड़ा बनना पड़ता था तो कभी चोर-सिपाही का खेल खेलते हुए उसे चोर बनना पड़ता। चिंटु हाथ में रस्सी का टुकड़ा लिए मानो वह हथकड़ी हो, उसकी तलाश करता। कभी उसे पलंग के नीचे तो कभी दरवाजे की ओट में खड़ा रहना पड़ता था। पकड़ा जाने पर पिंटु ख़ूब शोर मचाता कि उसने एक मुलजिम को गिरफ़्तार कर लिया है। कभी घूमते हुए वे शहर के बाहर निकल जाते और ऊँची-सी टेकड़ी पर बैठकर अपने घर की तलाश करते। दोनों के बीच होड़ लगती कि जो अपने घर को पहचान लेगा, इनाम में उसे सौ रुपये का एक नोट मिलेगा।
बेचारा चिंटु हार मान लेता। असंख्य मकानों के बीच अपना घर पहचान लेना, कोई आसान काम तो नहीं था उसके लिए. आख़िर वह अपनी हार मान लेता और कहता-" दादा जी, हम हार गए. पापा से पैसे लेकर मैं आपको दे दूंगा। अब आप ही बतलाइये कि अपना मकान कौन-सा है? । वह उंगली से इशारा करते हुए उसे अपना मकान दिखलाता। वह सब महज़ इसलिए भी इस खेल को खेल रहा था कि बड़ा होने पर उसे अपनेपन का अहसास तो बना रहेगा... अपने घर के प्रति मोह तो बना रहेगा। वैसे वह जानता है कि पढ़-लिख कर कोई एक बार महानगर में पैर रख लेता है, वह दुबारा लौट कर घर नहीं आता। पिंटु ही की क्या, उसका अपना बेटा भी तो शहर का ही होकर रह गया है। वह शायद ही वापिस लौटे। जब वह लौट नहीं सकेगा तो इस नन्हें बालक से क्या उम्मीद की जा सकती है? ।
पिंटु की बात सुनकर मन खुश हो जाता और वह उसे अपने सीने से चिपका लेता। उसे सीने से लगाते हुए उसके रोम-रोम में प्रसन्नता कि लहरें हिलोरे लेने लगतीं। फिर वह उसके कहता-"पिंटु सौ रुपये उधार रहे। मुझे अभी इसकी आवश्यक्ता नहीं है। जब तुम बड़े होगे। लिख-पढ़कर जब तुम एक अफ़सर बनोगे! तब लौटा देना" कहते हुए उसकी कोर भींग उठती। वह जानता है कि जब तक वह इस संसार में ही नहीं रहेगा।
पिंटु कभी किसी पेड़ की शाख़ पकड़कर झूलता तो कभी किसी रंग-बिरंगी तितली का पीछा करते हुए उसे पकड़ने के लिए दौड़ लगाता। सर्र-सर्र करती बहती हवा के झोंकों में उसे लगता कि वह भी किसी पखेरु की तरह हवा में उड़ा जा रहा है। तरह-तरह के खेलों को खेलते हुए शाम घिर आती। सूरज के लाल-लाल बड़े से गोले की ओर उंगली उठाकर वह कहता-" पिंटु सूरज देवता अब अपने घर जा रहे हैं। कल सुबह फिर वे एक नया सबेरा लेकर आएंगे। बस, थोड़ी ही देर में अन्धकार गहराने लगेगा। अब हमें इस पहाड़ी पर से उतर जाना चाहिए, वर्ना अंधकार में उतरने में परेशानी हो सकती है। मगन मन चिंटु हामी भरता और वे पहाड़ी उतरने लगते।
घर लौटने से पहले वह उसे चाकलेट-टाफ़ी वगैरह दिलवाता और इस तरह वे घर लौट आते।
हंसते-खेलते दिन पर दिन कैसे बीतते चले गए, पता ही नहीं चल पाया। अब उसे वापिस होना था। उसके स्कूल जो खुलने वाले थे। पिंटु के जाने के बाद से उसका दिल गहरी उदासी से भर गया था। न खाने-पीने में मन लगता और न ही उसे नींद आती थी। धीरे-धीरे सब सामान्य हो चला था। बीते दिनों को याद करते हुए वह खुश हो लेता। शायद ही कोई ऎसा दिन रहा होगा, जिस दिन पिंटु की ओर से फ़ोन न आया हो। फ़ोन की घंटी बजते ही वह लपक कर उठाता और देर तक उससे बातें करते रहता।
विचारों की शृंखला टूटने का नाम नहीं ले रही थीं। उसमें गहरे गोते लगाते हुए वह कब नींद की आगोश में चला गया, पता ही नहीं चल पाया। शोरगुल सुनकर उसकी नींद खुली। खिड़की से झांककर देखा। ट्रेन वीटी पर खड़ी थी और उतरने वालों की लंबी लाईन लगी थी। उसने जेब से चाभी निकाली। चेन से बंधे सूटकेस को खोला और अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ। स्टेशन से बाहर निकलकर उसने टैक्सी ली और घर की ओर चल पड़ा। ट्रेन की लेट-लतीफ़ी की वज़ह से उसने बेटे को स्टेशन न आने की सलाह देते हुए कह दिया था कि वह सीधे घर पहुँच जाएगा।
दरवाजा अन्दर से बंद था। उसने काल-बेल का स्वीच दबाया और किसी के आने का इन्तजार करने लगा। दरवाज़ा खोलने वाला और कोई नहीं बल्कि उसका चहेता पिंटु ही था। उसे सामने पाकर उसने सूटकेस को एक तरफ़ रखते हुए उसे अपनी बाहों के घेरे में ले लिया। चिंटु से गले लगते हुए उसे अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था। घर के अन्दर प्रवेश करते ही चिंटु ने अपनी मम्मी को तेज आवाज़ लगाते हुए कहा-"मम्मी...मम्मी...देखो तो सही...मेरे प्यारे दादाजी आए हैं" ।
सोफ़े में धंसते हुए दादा-पोते बतियाने लगे। बातें करते हुए उसे ध्यान ही नहीं आया कि चिंटु को तोहफ़ा देना तो वह भूल ही गया है। अपनी भूल को सुधारते हुए उसने एक बड़ा-सा पैकेट देते हुए कहा-"पिंटु...ये रहा भाई तुम्हारा तोहफ़ा...इसे खोलकर देखो तो सही कि दादाजी तुम्हारे लिए क्या लाए है? । पिंटु ने पैकेट हाथ में लेते हुए कहा..." दादाजी ...आपने जो भी लाया होगा, वह सुन्दर ही होगा...इसे कल सबके सामने खोलूंगा और अपने दोस्तों को बतलाउंगा" । कहते हुए उसने उसे एक ओर रख दिया था।
इसी बीच बहू ने आकर उसके चरण स्पर्ष किए. कुशल-क्षेम पूछा और यह कहकर वापस हो ली कि वह जल्दी ही नाश्ता और चाय-पानी लेकर आएगी।
चिंटु ने अपने पिता को दादाजी के आगमन की सूचना फ़ोन पर दे दी थी। "बेटे...मुझे आने में थोड़ा समय लग जाएगा। तब तक आप अपने दादाजी के साथ गप्प-सड़ाका लगाओ. हो सके तो उन्हें पार्क घुमा लाओ. आफ़िस से लौटते समय मैं पूजा प्लस होता हुआ आउंगा। मैनेजर ने पूरी व्यवस्था कर रखी है या नहीं...देखता आउंगा।"
चाय-नाश्ते के बाद दोनों पार्क की ओर निकल गए. रास्ता चलते हुए उसने देखा कि कई बच्चे संकरी गली में क्रिकेट खेलने में निमग्न हैं। यह देखते हुए वह सोच में पड़ गया था उसका पोता भी इन्हें गलियों में अपने मित्रो के साथ खेलता होगा। महानगरों में इतनी जगह ही कहाँ बची है कि बच्चे खेल-खेल सकें, जबकि उसके अपने छॊटे से शहर में बड़े-बड़े खेल के मैदान है। लंबे-चौड़े पार्क भी हैं जहाँ वे अपना मनोरंजन कर सकते हैं।
देर रात बीते उसे अपने बेटे से मिलने का मौका मिला। सभी ने साथ बैठकर खाना खाया। यहाँ-वहाँ की बातों के बाद अब वे सोने चले गए थे, ताकि अगली सुबह बची-खुची तैयारियाँ की जा सके.
पूजा प्लस जाने से पहले बेटे ने दो बड़े से पैकेट अपने पिता को देते हुए कहा-"पापाजी... इसमें आपके लिए कुछ कपड़े हैं, मेरी इच्छा है कि आप इन्हें पहन लें। बस थोड़ी ही देर में हम सब यहाँ से निकल चलेंगे" । पैकेट देकर वह लौटने ही वाला था कि कल्लु ने उसे रोकते हुए कहा..."ज़रा एक मिनट के लिए रुको तो सही...मैं इसे तुम्हारे ही सामने खोलना चाहूंगा" ।
" जी ...पापाजी.।कहते हुए वह एक कुर्सी में धंस गया था।
कल्लु ने पैकेट खोला। उसमें एक बंद गले का कोट-पैंट और शर्ट थी। दूसरे पैकेट में चमचमाते जूते थे। कल्लु को यह सब देखकर आश्चर्य होने लगा था। उसने कहा;-"बेटे तू तो जानता है कि मेरी अपनी पहचान लाल कमीज और बिल्ला नम्बर 243 की रही है। मैंने अपने पूरे जीवन में कभी भी कोट-पैंट नहीं पहने और न ही इस तरह के जूते। बजाए इसके, तुम मेरे लिए कुर्ता-पाजामा लाए होते तो अच्छा होता" ।
सुनकर वह सोच में पड़ गया था। बात सच भी थी। वह दुविधा में पड़ गया था और सोचने लगा था कि बर्थ-डे पार्टी में चिंटु उनका साथ नहीं छोड़ेगा। अगर वे मामूली कपड़ों में होंगे, तो आने वाले अफ़सर उन्हें हिकारत भरी नजरों से देखेंगे...अगर ऎसा हुआ तो वह सहन नहीं कर पाएगा और पार्टी का मज़ा किराकिरा हो जाएगा। यही सोचकर उसने उनके नाप का सूट और जूते ले आया था। पुराने ज़माने के अपने पिता को वह कैसे और क्या कहकर मनाए, समझ में नहीं आ रहा था। तभी उसके मन में एक आइडिया आया कि चिंटु का हवाला देते हुए उन्हें मनाया जा सकता है। अगर पिंटु एक बार उनसे कह दे तो वे इनकार नहीं कर पाएंगे।
"पापाजी... मैं आपकी भावनाओं को समझ सकता हूँ लेकिन चिंटु को भला कौन समझाए. ज़िद कर बैठा कि मेरे दद्दु के लिए सूट ही खरीदना है। वे मेरी पसंद का सूट अवश्य पहनेंगे। अब आप जाने और आपका लाड़ला चिटु" । मुझे बीच में मत डालिए" । कहते हुए उसने याचना भरी नजरों से देखा। होशियार था चिंटु। समझ गया कि अब उसे क्या करना और कहना चाहिए.
"दादाजी... आपको सूट पहनना ही पड़ेगा। मैंने इन्हें आपके लिए ही पसंद किया है। अब उठिए और जल्दी से तैयार हो जाइए" । चिटु की बात सुनकर उसका हृदय भर आया था और नेत्रों से आंसू झरझराकर बह निकाले थे। कहते हैं न कि मूल से सूद ज़्यादा प्यारा होता है। बड़े-बूढ़े एक बार भले ही अपनी सगी औलाद की बात सुनी-अनसुनी कर दें, लेकिन अपने पोते की बात को किसी भी क़ीमत पर टाल सकने की स्थिति में नहीं रहते।
ना-नुकुर करने की स्थिति में नहीं था कल्लु। उसे हर हाल में अपने पोते की बात माननी ही पड़ेगी।
कपड़े पहन कर वह आईने के सामने जा खड़ा हुआ। अपने बदले हुए अंदाज़ देखकर वह ख़ुद पर भरोसा नहीं कर पा रहा था कि क्या यह वही कल्लु कुली है जिसकी देह पर चौबीसों घंटे लाल शर्ट और कमर में पाजामा बंधा रहता है। वह कुछ और सोच पाता कि बहू ने कमरे में प्रवेश करते हुए उसे सोने की चेन देते हुए कहा। ।"बाबूजी.।इसे ज़रूर पहन लेना" । इतना कहकर वह वापिस हो ली थी।
पूजा प्लस को दुल्हन की तरह सजाया गया था। बेटा और बहू अपने मित्रो का मुस्कुराते हुए स्वागत करने में निमग्न थे। वह अपने पोते के साथ बैठा उस घड़ी का इन्तजार कर रहा था, जब उसके माथे पर तिलक-रोली लगायी जाएगी। फिर वह केक काटेगा और इसी के साथ जश्न शुरु हो जाएगा।
झिलमिल रोशनी के बीच आर्केस्टा वाले फ़िल्मी गीत गा रहे थे। डांसिग फ़्लोर पर कुछ बच्चे नाच-गा रहे थे। पूरा हाल मेहमानों से खचाखच भरा था। सभी को उस घड़ी का इन्तजार था, जब चिंटु मंचासीन होकर केक काटेगा। तभी बेटे ने मंच से मुख़ातिब होते हुए सभी को उस स्थान पर आने के लिए आमंत्रित किया, जहाँ केक काटने की व्यवस्था कि गई थी।
चिंटु इस वक़्त किसी हीरो से कम नहीं लग रहा था। सबकी नजरें उस पर टिकी थी। बहू ने आगे बढ़कर मोमबत्तियाँ सुलगाई. चिंटु ने केक काटा और जलती हुई मोमबत्तियों को एक फ़ूंक में बुझा दिया। पूरा हाल तालियों की गूंज और हेप्पी बर्थडे टू चिंटू की शोर में नहा गया। जलती मोमबत्तियों को बुझाता देख वह ऎसा करने से मना करने वाला ही था, लेकिन यह सोचते हुए चुप्पी साध गया कि उसे जाहिल-गवांर समझा जाएगा। यदि ऎसा हुआ तो बेटे की किरकिरी हो जाएगी। लोग उसके बारे में पता नहीं कैसी-कैसी धारणाएँ बना लेंगे। वह गंभीरता से सोचने लगा था कि हमारी संस्कृति में दीप जलाकर, अन्धकार को दूर करने की परम्परा रही है। क्या सारे हिन्दुस्थानी अपनी पुरातन संस्कृति को...अपनी पावन परम्परा को भूल गए है? । हमारे यहाँ जलते हुए दीपक को कभी बुझाया नहीं जाता है। ऎसा करना अपशगुन माना जाता है, लेकिन यहाँ क्या, सभी जगह उलटी रीत जो चल निकली है।
केक कटने के साथ ही लोग उसे तोहफ़े देने लगे थे। चिंटु लेता जाता। मुस्कुरा कर उनका अभिवादन करता। थैंक्स कहता और दादाजी को देता जाता। वह भी उन्हें यथास्थान रखता जाता। अब कुछ युवा तुर्क डांसिंग फ़्लोर की ओर बढ़ चले थे। किसी इंग्लिश फ़िल्म का गाना बज रहा था। कुछ युवक-युवतियाँ एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले थिरक रहे थे। कुछ स्वादिष्ट भोजन का आनन्द ले रहे थे। बड़े-बूढ़े भी भला पीछे कैसे रहते। वे भी अपनी बुढ़ियाओं को लेकर डानिंस फ़्लोर पर पहुँच गए थे और अपने बीते दिनों की सुनहरी यादों को ताज़ा करते हुए थिरकने लगे थे। शम्मीकपूर की तरह थिरकते हुए एक महानुभाव ने आगे बढ़ते हुए कल्लु से नाचने का आग्रह किया। वह भी इसी फ़िराक में था कि उससे एक बार कोई तो कहे। मन की मुराद पूरी हुई और वह भी डासिंग-फ़्लोर पर जा पहुँचा। आरकेस्ट्रा वालों से कभी वह अपने ज़माने की पसंदीदा फ़िल्मी गीतों को गाने-बजाने को कहता, तो कभी गोंडी गानों की धुन बजाने को कहता। तरह-तरह की स्टाईल में वह नाचता और साथ ही अभिनय भी करता जाता था। डसिंग-फ़्लोर से सभी नाचने और थिरकने वालों ने अपने नाच बंद कर दिए थे और एक बड़ा-सा घेरा बनाए, उसे नृत्य करता देखने लगे थे। बिना रुके वह घंटॊं नाचता रहा था। उसे नाचता देख कोई युवा-तुर्क सीटी बजा-बज कर उसका उत्साहवर्धन करता और बाक़ी के लोग तालियाँ बजा-बजा कर। कभी वह अपने पोते को लेकर नृत्य करता तो कभी हमउम्र के किसी साथी को पकड़कर नाचता। हर आदमी उसकी भाव-भंगिमा को, उसकी थिरकन को लेकर कहता...देखो तो सही...इस उम्र में भी बूढ़ा कैसे-कैसे जलवे दिखा रहा है।
देर रात तक जश्न का माहौल बना रहा था। जब वे घर वापिस लौटे तो रात के तीन बज रहे थे।
अपने परिवार के साथ रहते हुए एक सप्ताह कैसे बीत गया, पता ही नहीं चल पाया। उसे अब बोरियत-सी होने लगी थी। दिन भर दौड़-धूप करने वाला आदमी भला एक कमरे में अकेला कितनी देर बैठा रह सकता था? । चिंटू सुबह स्कूल चला जाता है और तीन बजे के करीब लौटता है। बेटा भी साढ़े नौ बजे अपनी नौकरी के लिए निकल जाता है। बहूरानी से बात करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बचा रहता है वह अकेला अपने कमरे में। न तो उसके लिए कोई काम ही बचता है और न ही वह पढ़ना-लिखना ही जानता है। टीव्ही भी देखेगा तो कितनी देर तक देख सकता है? खाना खाकर सिवाय पलंग तोड़ने के वह कर भी क्या सकता है। फिर आदमी दिन भर सोता भी कैसे रह सकता है? ।
एक दिन। उसने अपने पड़ौसी से बात करना चाहा। पहले तो उसने उसे ग़ौर से देखा और बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया था। महानगरों का माहौल ही कुछ ऐसा बन गया है कि एक पड़ौसी अपने दूसरे पड़ौसी को पहचानता तक नहीं है। ऎसे माहौल में भला वह कितने दिन रह सकता है? । वह यह भी नहीं भूला था कि घर में खाना पकाने वाली बाई उसकी थाली में प्रचुर मात्रा में खाना परोसकर उसके कमरे में रख जाती थी। धीरे-धीरे उसकी मात्रा में कमी आने लगी थी। कभी तो उसे भूखा भी रहना पड़ जाता था। शिकायत करें भी किससे करे...क्या ऎसा किया जाना उसे शोभा देगा? क्या यह उचित होगा? यही सोचकर वह चुप्पी साध जाता। एक दिन की बात हो तो सहा जा सकता है, लेकिन लंबे समय तक भूखे कैसे रहा जा सकता है। शिकायत करे भी तो किससे करे? बेटे से कहता है तो निश्चित ही घर में तूफ़ान उठ खड़ा होगा। अतः चुप रहना ही श्रेयस्कर लगा था उसे।
उसे अब अपनी मित्र-मण्डली की याद भी आने लगी थी। भले ही वह मेहनत-मजूरी का काम करता था, लेकिन अपने लोगों के बीच घिरा तो रहता था। यहाँ न तो कोई बोलने वाला था और न ही बताने वाला। उसने तय कर लिया था कि अब उसे लौट जाना चाहिए. इसी में उसकी भलाई है।
एक दिन सकुचाते हुए उसने अपने बेटे से कहा कि अब वह घर लौट जाना चाहता है। बेटे की मंशा थी कि वह अब साथ में ही रहे। "ऎसी भी क्या जल्दी है पापाजी... मैं चाहता हूँ कि अब आप हमारे ही साथ रहें" । बेटे ने कहा था। "चाहता तो मैं भी हूँ कि साथ में रहूँ...लेकिन मेरी मजबूरी तुम समझ नहीं पा रहे हो। दिन भर अकेला बैठे रहना मेरे बस का नहीं है। अगर इसी तरह मैं बैठा रहा तो पागल हो जाउँगा। अब मुझे चले जाना चाहिए. वहाँ मेरी अपनी मित्र-मण्डली है। सुख-दुख के हम साथी रहे हैं, फिर बरसों का साथ भी रहा है। दिन और रात कैसे हँसते-हँसाते कट जाते हैं पता ही नहीं चल पाता" ।
चिंटू ने सुना तो रुआंसा होकर बोला..."दादाजी. अब आप कहीं नहीं जाएंगे...हमारे साथ ही रहेंगे..."
अपने पोते की बात सुनकर उसकी आँखे छलछला आयी थीं। भर्राये स्वर में वह इतना ही बोल पाया था कि अगले साल तुम्हारे जन्म-दिन पर फिर चला आउँगा" कहते हुए वह फ़बक कर रो पड़ा था और उसने उसे अपने सीने से चिपका लिया था।
चिंटु अपने स्कूल गया हुआ था और बेटा नौकरी पर। उसकी गाड़ी दोपहर दो बजे की थी। उसने अपना सामान समेटा और बहू से बोला-"अच्छा बेटी... हम अब चलते हैं" ।
"ठीक है, जैसी आपकी मर्जी... लेकिन जाने से पहले आप सोने की चेन वापिस देते जाइएगा...वहाँ, कहाँ संभालते फ़िरेंगे आप? । दिन भर तो आप घर में रहते नहीं हैं...फ़िर किसी ने चुरा ली तो...लाखों का नुक़सान हो जाएगा। हाँ...सूट भी वापिस करते जाइएगा...पूरे दिन तो आप कुलियों वाली लाल शर्ट ही पहने रहते हैं...सूट भला क्या पहन पाएंगे...पेटी में पड़े-पड़े कीड़े भी लग सकते है" । वह केवल इतना ही बोल पायी थी। ज़्यादा कुछ न बोलते हुए भी इसने काफ़ी कुछ बोल दिया था।
बहू की बातें सुनकर सन्न रह गया था वह। उसे इस बात की तनिक भी उम्मीद नहीं थी कि बहू ऎसा कुछ कहेगी। "हाँ...हाँ...क्यों नहीं... पहले से ही मैंने उन चीजों को अलग रख दिया था ताकि जाते समय लौटा सकूं...सच कहती हो बहू तुम...मेरे लिए ये भला, हैं भी किस काम के" । कहते हुए उसने जेब से चेन निकालकर उसकी हथेली पर रखते हुए, सूट का पैकेट टेबल पर रख दिया और अब वह सीढ़ियाँ उतरने लगा था।
कल्लु अब धीरे-धीरे अपने अतीत की खोल से बाहर निकल रहा था। स्टेशन पर वही चिर-परिचित शोरगुल मचा हुआ था। लोग-बाग अपना सामान इधर से उधर ले जा रहे थे, तो कोई उधर से इधर आ रहा था। रामदीन ने भजिया तल लिया था और अब पूरियाँ निकाल रहा था। शायद कोई ट्रेन आने वाली थी। उसका शरीर अब भी उसी रेलिंग से सटकर बैठा हुआ था। इंजिन की चीखती आवाज़ और हार्न सुनकर वह अपनी अतीत की गहराइयों से वापिस लौटने लगा था।
अब वह पूरी तरह से बाहर निकल आया था। चैतन्य होते हुए वह उठ खड़ा हुआ। नल पर जाकर उसने मुँह पर पानी की छींटें मारे और कांधे पर टंगे गमछे से मुँह पोछा।
अतीत के अपने कड़ुवे अनुभवों को याद करते हुए उसका मुँह कड़ुवा हो आया था। गला खंगारते हुए उसने आक थू कहते हुए, थूक एक ओर उछाल दिया और अब वह रामदीन की ठिलिया के पास चला आया था। "अरे ओ रामदीन भइया...जरा एक कड़क-मीठी चाय तो बनइयो...बहुत देर हो गई ससुरा, हम चाय नहीं पी पाए"
कड़क मीठी चाय को गले से नीचे उतारते हुए उसने निर्णय कर लिया था कि वह अपने बेटे से साफ़-साफ़ कह देगा कि वह उसे अपने साथ ले जाने की ज़िद छोड़ दे और वापिस लौट जाए. वह किसी भी क़ीमत पर उसके साथ नहीं जा पाएगा। वह जैसा भी है, जहाँ भी है सुखी है।
-गोवर्धन यादव
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