दिनांक : 24/08/2024
कल मैंने कॉलेज में ही अपनी जेब की एक छोटी-सी पर्ची पर एक टिप नोट कर ली थी, इसलिए कि उसे विषय बनाकर मैं कुछ लिख सकूँ।फुरसत में और घर पहुँचकर।यह टिप है--"ओ लेखकासुर! मैं तुम्हारा क्या कर सकता हूँ?" असल में हम हर उस व्यक्ति का कुछ भी कर नहीं सकते जो व्यक्ति श्रेष्ठताबोध या विशिष्टताबोध से प्रचंड रूप से ग्रस्त है। वह व्यक्ति इतना आत्ममुग्ध हो गया है कि उसे अपने सामान्य होने की दूर-दूर तक अनुभूति ही नहीं होती। वह अपने आपको किसी महान आत्मा या देवता की तरह अद्वितीय समझने लगता है। साहित्य के क्षेत्र में इस रोग से अनेक लोग मुझे पीड़ित दिखाई देते हैं। कहना तो नहीं चाहिए पर ऐसा लगता है कि कहना जरूरी हो गया है।
इधर के दिनों में मैंने यह अनुभव किया कि यदि किसी रचनाकार की दस पुस्तकें प्रकाशित हैं तो वह नौ प्रकाशित पुस्तकोंवाले रचनाकार को अपने से कमतर समझता है। किसी के यदि पचास उपन्यास प्रकाशित है तो वह चालीसवाले को अपने से छोटा उपन्यासकार समझता है। कविता, कहानी, उपन्यास और साहित्यिक आलोचना की प्रकाशित पुस्तकों की संख्या के आधार पर उत्पन्न यह विशिष्टता की भावना साहित्य के क्षेत्र में स्वस्थ भावना या प्रवृत्ति तो नहीं कही जा सकती? किसी लेखक की खुद की प्रेस है तो उसकी सौ-डेढ़सौ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। नहीं है तो किसी भी तरह पुस्तकें प्रकाशित कर ली गयी हैं। इस भाव से कि मैं संख्या के मामले में तो उच्च श्रेणी का बन ही गया हूँ। अब इस तरह थोक में लिखनेवालों और प्रकाशित करनेवालों को तो 'लेखकासुर' ही कहा जा सकता है ना, कि उसे 'कलम का सिपाही' कहेंगे या 'कलम का जादूगर'? उसे 'लेखक सम्राट' भी कहा जा सकता है या 'प्रचंड लेखक' या 'लेखकवीर'। आजकल के 'अग्निवीर' की तरह। प्रचंड पराक्रम से युक्त लेखन जो आजतक कोई न कर सका।
इधर प्राध्यापकों में भी यह बिमारी तीव्रता से पसर चुकी हैं। 200-300 शोधपत्रों से तो कम की बात ही नहीं हो रही है। एक ही वर्ष में 50 शोधपत्र प्रकाशित। देवताओं और असुरों की तरह प्रचंड पराक्रम से युक्त लेखन। मेरे मन में अनेक बार लिखने के प्रति वितृष्णा या व्यर्थताबोध की भावना उत्पन्न हो जाती है। मुझे न साहित्यजगत का देवता बनना है और न दानव। सामान्य मनुष्य की तरह लिखूँ और दिखाई भी दूँ। इधर एक प्राध्यापक मित्र ने मुझे अपने से इसलिए छोटा समझा कि मेरे निर्देशन में अभी तक एक भी छात्र पीएच.डी. नहीं हुआ और उनके दो हो चुके और चार पीएच.डी. कर रहे हैं। मुझे यह भी पता चला कि मेरी तो सिर्फ तीन पुस्तकें प्रकाशित है इसलिए मैं उन लेखकों से अयोग्य और छोटा हूँ, जिनकी मुझसे अधिक प्रकाशित हो चुकी हैं। एक और गौर करने की बात यह है कि यदि हिंदी के श्रेष्ठ प्रकाशनों से आपकी पुस्तकें प्रकाशित हैं तो आप उनसे अधिक श्रेष्ठ है जिनकी ऐसे प्रकाशनों से प्रकाशित नहीं है।
मुझे लगा कि इसतरह छोटा और अयोग्य समझना मेरे लिए किसी सम्मान से कम नहीं है। जब कभी योग्यता विवादित हो तो अयोग्यता कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है, यह मैं समझ चुका हूँ। मैं तो छोटा, निरीह और सामान्य बने रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता और योग्यता समझता हूँ और न लिखनेवाला या किसी भी तरह की प्रतिभा से हीन व्यक्ति तो एकदम तुच्छ या क्षुद्र व्यक्ति ही है इनके सामने। ओ लेखकासुर! मैं तुम्हारा कर भी क्या सकता हूँ?
दिनांक : 30/08/2024
कल एक भारतीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर द्वारा जारी एक पोस्ट पढ़ी जिसमें उन्होंने यह निवेदन किया है कि उन्होंने पीएचडी शोधकार्य हेतु एक योजना बनाई है। जिन साहित्यकारों की हिंदी की विविध विधाओं में सृजनात्मक स्तर की न्यूनतम दस या उससे अधिक रचनाएँ यानी पुस्तकें प्रकाशित हैं, वे अपनी इन रचनाओं की सूची उन्हें भेजकर कृतार्थ करें। अब ऐसी स्थिति में मेरे सामने दो प्रश्न उपस्थित होते हैं--
प्रश्न 1) आप पीएच.डी. किसलिए करना और करवाना चाहते हैं?
प्रश्न 2) साहित्यकार किसी विश्वविद्यालय को अपनी रचनाओं पर पीएच.डी. करवाने के लिए अपनी रचनाओं की जानकारी या रचनाएँ खुद होकर क्यों भेजे?
मुझे लगा कि उक्त दोनों प्रश्नों की पृष्ठभूमि में यह निवेदन कतई गरिमामय और स्वागतयोग्य नहीं है। आप सभी तो जानते है कि देश में हिंदी शोधकार्य का स्तर किस प्रकार का है। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि हिंदी में शोधकार्य का स्तर एकदम से गिरा हुआ है बल्कि मुझे यह कहना अभिप्रेत है कि हिंदी में स्तरीय शोधकार्य बहुत ही कम मात्रा में हो रहा है और जो हो रहा है उसकी कोई विशेष दखल नहीं ली जा रही है। जो बहुसंख्या में खराब शोधकार्य हो रहा है वह दुर्भाग्य से शोधप्रविधि का आदर्श या मानक बनता जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसपर बहुत गंभीरता से सोचना आवश्यक है। दूसरी ओर मेरा एक और निरीक्षण यह कहता है कि जिन समकालीन साहित्यकारों पर पीएच.डी. हो रही हैं या की जा रही हैं उन साहित्यकारों को ऐसा लग रहा है कि इसतरह उनकी रचनाओं पर पीएचडी होना उनके साहित्यकर्म की उत्कृष्टता और अद्वितीयता का परिचायक है। मैंने ऐसे कई साहित्यकारों को अपनी फेसबुक वाल पर अपने साहित्यकर्म पर पीएच.डी. करनेवाले शोधकर्ताओं की सूची को प्रदर्शित करते हुए देखा। कोई तो यह बताने की चेष्टा कर रहा है कि देखों, इन 20 से 25 लोगों ने मुझपर पीएच.डी. की है। इस तरह अपने सृजनकर्म पर केंद्रित शोधकार्यों पर साहित्यकारों का मोहित हो जाना अविश्वसनीय है। मैं इन साहित्यकारों से यह विनम्र निवेदन करता हूँ कि कृपया यह तो बताइए कि उन शोधकर्ताओं ने भला आपकी रचनाओं को लेकर कौनसा मौलिक शोध किया है? शोध तो जानते ही हैं न आप? आप अपने सृजन पर हुए इन शोधकार्यों को पढ़कर कोई मौलिक या
मा'ना-ख़ेज़ टिप्पणी करने का साहस क्यों नहीं करते? केवल सूची या सूचनाएँ भेजते रहते हैं।
देखिए, यह लोग शोधकार्य क्यों कर रहे हैं? इसलिए कि पीएच.डी. देश के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक बनने की एक योग्यता या पात्रता यूजीसी द्वारा निर्धारित की गई है इसलिए कर रहे हैं.आपका साहित्य बहुत ही अच्छा और श्रेष्ठ है इसलिए नहीं. यदि इस शर्त को यूजीसी निकाल देती है तो आपके लेखन पर कोई शोध नहीं करेगा. शोध तो क्या आपकी रचनाओं की एक लाईन भी नहीं पढ़ेगा. मित्रो, शोधकर्ताओं और शोधनिर्देशकों का हेतु कुछ और ही है. प्रामाणिक शोधकर्ता और सच्चा पाठक तो आपको भाग्य से ही मिलेगा. इसपर बहुत अधिक इतराने की कोई आवश्यकता नहीं है. पर मामला यह है कि आप भी प्रतिष्ठा के लोभी है. चाहे वह नकली प्रतिष्ठा ही क्यों न हो. पर आप यह क्यों नहीं समझते कि ऐसी जद्दोजहद से आप वास्तविक सम्मान या प्रतिष्ठा को तो अर्जित नहीं कर सकते. पर आज के युग का सच यह भी है कि झूठी ही सही, प्रतिष्ठा मिलना जरूरी है.
मैं इस क्षेत्र से संबंधित हूँ और बहुत निकट से जानता हूँ कि हम प्राध्यापक वर्ग के लोग इस क्षेत्र को कितना बदनाम कर चुके हैं। कुछ भी और किसी भी तरह से लिखी हुई सामग्री को पीएच.डी. थीसिस के रूप में मान्यता दिलवाने में सफल हो जाते हैं। कतिपय लोग तो नित्य यह ढिंढोरा पिटते रहते हैं कि मेरे निर्देशन में अब तक 30-40 छात्रों ने एम.फिल्. और पीएच.डी. की है. इसी उपलब्धि के बल पर वें विश्वविद्यालयों के ऊँचे पदों पर या यह कहे कि वॉयस चांसलर के पद पर भी चयनित हो जाते हैं। उनकी इस प्राप्त सफ़लता या उपलब्धि को देखकर अन्य लोग भी इसी रास्ते का अनुसरण करते पाये जाते हैं। ऐसी स्थिति को देखकर लगता है कि हम क्यों इस क्षेत्र में आए हैं? देखिए, ऐसे शोधकार्यों पर साहित्यकार ही चाहे तो कुछ अंकुश लगा सकते हैं। अपने साहित्यपर की गई पीएच.डी. को यदि लगे तो कटघरे में खड़ा करें, आपत्ति उठाए। लेकिन किसी भी तरह साहित्य के क्षेत्र में इस गंदी परिपाटी को रोकने में सहायता करें। एक से एक ठग और डाकू इस पवित्र क्षेत्र को अपने कब्जे में ले चुके हैं. आप चाहे तो साहित्य सृजन का काम थोड़े समय के लिए स्थगित कर दे। यह युग आपकी सक्रिय होने की तीव्र प्रतीक्षा कर रहा है। आपसे बड़ी उम्मीद है।
दिनांक : 31/08/2024
"भारत में अँग्रेजी लोगों की प्रतिष्ठा (प्रेस्टीज) के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई है" : पद्मश्री तोमियो मिजोकामि
"ज्वालामुखी" जापानी लोगों द्वारा लिखित एवं प्रकाशित हिंदी की एक महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। अब यह प्रकाशित नहीं होती। इस पत्रिका का प्रथम अंक सितंबर-1980 में प्रकाशित हुआ था और इसके संपादक थे श्री योशिअकि सुजुकी। इस पत्रिका के 1980 के दशक से लेकर 1986 तक प्रतिवर्ष कुल छह अंक निकले। केवल 1984 में इसका कोई अंक प्रकाशित नहीं हुआ। इन सभी छह अंकों की सामग्री को एकत्रित कर पुनश्च "ज्वालामुखी" शीर्षक से ही पुस्तकाकार रूप में 2023 में प्रकाशित किया गया। पुस्तकाकार इस पत्रिका के प्रस्तुतकर्ता डॉ. वेदप्रकाश सिंह ने मुझे इस पुस्तक की एक प्रति सितंबर-2023 में ही भेजी थी परंतु समयाभाव के कारण मैं इस पुस्तक पर तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सका और न ही इसपर कुछ लिख सका।
वास्तव में भारत में हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर अत्यंत अनूठी, ज्ञानवर्धक और शोधपरक सामग्री इस पुस्तक में संकलित है। यह सब कुछ जापानी लेखकों द्वारा लिखित होने के कारण इसका विशेष महत्व है, ऐसा नहीं है बल्कि उन्होंने जिस तरह से हिंदी में लिखा है वह अद्वितीय है और भारत के हिंदी में लिखनेवाले लोगों के लिए भी एक उत्कृष्ठ उदाहरण है। शोध करते समय शोधकर्ता की दृष्टि कैसी तीक्ष्ण और सूक्ष्म होनी चाहिए तथा शोध किस प्रकार गंभीरता और निष्ठा से करना चाहिए इसके कई उत्तम उदाहरण इस पत्रिका में मिलते है। मैं पद्मश्री डॉ.तोमियो मिजोकामी के उस लेख को पढ़कर प्रभावित हुआ जो पत्रिका के 1980 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसका शीर्षक है--"उत्तरी भारत के नगरों में भाषा समस्या पर कुछ टिप्पणियाँ"। आप विश्वास भी नहीं करेंगे ऐसे किसी अनूठी और वाकई महत्वपूर्ण परिकल्पना से युक्त विषयपर कुछ शोधपरक लिखा जा सकता है और वह भी किसी विदेशी द्वारा। यह काम तो हम में से किसी एक को करना चाहिए था। इस शोधपरक लेख में उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न नगरों के हिंदी बोलने और समझने वाले लोगों को आठ वर्गों में विभक्त किया है जो उनकी शिक्षा, संस्कृति तथा भाषा के प्रति उनकी सचेतनता अथवा अचेतनता पर आधारित है और उनके सामाजिक स्तर से मेल नहीं खाता। यह आठ वर्ग क्रमशः क, का, ख, खा, ग, घ, ड और च है। इस लेख का संक्षिप्त कुछ इस प्रकार है जो अत्यंत रोचक और विचारोत्तेजक है:
वर्ग 'क..... हिंदी-विद्वान अथवा अध्यापक, हिंदी अथवा संस्कृत के स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र, हिंदी लेखक, कवि, आलोचक, हिंदी-पत्रकार, आर्य समाज के नेता, और सनातन हिंदू धर्म के साथ संबंधित पंडित इत्यादि इसी वर्ग में आते हैं। ये उच्च हिंदी में बहुत दक्ष हैं। गमपर्ज" के अनुसार हम इस वर्ग को 'संभ्रांत हिंदी वक्ता' कह सकते हैं। जब ये 'संभ्रांत हिंदी वक्ता' शुद्ध हिंदी के संकुचित प्रचारक बन जाते हैं, तो इन्हें 'हिंदी वाले' कहा जाता है, जो कि एक अपमानजनक शब्द है। इस प्रकार की मौजूदगी ही हिंदी क्षेत्र की अन्यतम विशेषता है।
वर्ग 'का'.... उन लोगों का है जो अंग्रेज़ी में उच्चशिक्षित होने के साथ-साथ हिंदी में भी समान रूप से अच्छे हैं। ये वास्तविक द्विभाषी हैं। ये स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में सहजता से बदल सकते हैं। ये संकीर्णतावादी नहीं होते। ये भारतीय बुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं, किंतु आर्थिक दृष्टि से उनमें से अधिकांश मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग में आते हैं। 'क' तथा 'का' वर्ग ही ऐसे हैं जो किसी विदेशी से यह नहीं कहेंगे कि "आप मुझसे अच्छी हिंदी जानते हैं।" और जिनसे विदेशी लोग अच्छी हिंदी सीख सकते हैं।
वर्ग 'ख'..... वर्ग 'क' का ही यह उर्दू संस्करण है और वर्ग 'खा', वर्ग 'का' का। शिक्षित मुसलमान और कुछ शिक्षित हिंदू (जैसे कायस्थ लोग जो उर्दू में शिक्षित हैं) 'ख' वर्ग अथवा 'खा' वर्ग के अंतर्गत आते हैं। उनकी संख्या कम होती जा रही है।
वर्ग 'ग'.... यह एक ऐसा वर्ग है जो भाषा नीति के प्रति उदार तथा उदासीन है। शिक्षित मध्यवर्ग का अधिकांश इसी वर्ग में आता है। ये वर्ग 'का' अथवा वर्ग 'खा' के निम्नतर स्तर के लोग हैं। 'क' का 'ख' और 'खा' वर्ग अपने भाषा प्रयोग के प्रति 'सजग' हैं किंतु 'ग' वर्ग उसके प्रति 'सुप्त' है। यद्यपि ये लोग भी द्विभाषी हैं, किंतु स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में नहीं बदल सकते। इन्हें 'भाषा के अवसरवादी' कह सकते हैं।
वर्ग 'घ'.... उन लोगों का वर्ग है जो शरीर से भारतीय और मन से 'अंग्रेज' हैं। ये अंग्रेज़ों के समान ही धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं। इन्होंने पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाई है। अंग्रेज़ी को भारत में बनाए रखने के ये प्रबल समर्थक हैं। यद्यपि ये हिंदी समझ लेते हैं पर 'काम चलाऊ हिंदी' ही पर्याप्त समझते हैं। ये लोग अधिकांशतः सरकारी प्रशासक, बड़े व्यापारी, डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक, पत्रकार और विश्वविद्यालयों के वे प्रोफ़ेसर हैं जिनके विषय विज्ञान अथवा सामाजिक विज्ञान से संबंधित हैं। ये संभ्रांत अवश्य हैं किंतु भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
वर्ग 'ग' और 'घ' ही ऐसे हैं जो 'अंग्रेज़ीयत' से छुटकारा न पाने के कारण हिंदी के विदेशी छात्रों को (अंग्रेज़ी भाषी भी शामिल हैं) हतोत्साहित करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा मानते हैं--जैसा कि एंग्लो-इंडियन लोगों में पाया जाता है, जो सुशिक्षित भी नहीं, 'संभ्रांत' भी नहीं, केवल अंग्रेज़ी में सोचते और जीते हैं, वे निम्नस्तर के 'घ' हैं।
वर्ग 'ङ'.... यह अर्द्ध-शिक्षितों का वर्ग है। ये लोग सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम से शिक्षा पाते हैं। ये न तो साहित्यिक हिंदी में प्रवीण होते हैं और न ही अंग्रेज़ी में। किंतु उल्लेखनीय बात यह है कि वर्ग 'घ' की अपेक्षा वर्ग 'ङ' के लोग ही विदेशी छात्रों के लिए हिंदी सीखने में अधिक सहायक हैं। एक व्यक्ति, जिसने प्राईमरी स्कूल के केवल तीन वर्षों तक पढ़ाई की थी--को 'दिनमान' पढ़ते हुए देखना, जिसे वर्ग 'घ' या तो पढ़ नहीं सकता या पढ़ना ही नहीं चाहेगा, मेरे लिए एक उत्तेजक अनुभव था।
वर्ग 'च'... यह वर्ग अशिक्षित समुदाय का है। ये हिंदी में भी अशिक्षित हैं। उनकी बोली में शिक्षितों अथवा अर्ध-शिक्षितों की बोली की अपेक्षा अधिक विविधता है।
अंततः हमें वर्ग 'छ' को भी देखना होगा।
वर्ग 'छ'... यह तथाकथित उन प्रवासी लोगों का वर्ग है जिनकी मातृभाषा हिंदी से इतर है। भाषा की दृष्टि से अल्पसंख्यकों में से दिल्ली में सबसे बड़ा वर्ग पंजाबियों का है. परंतु केवल शिक्षित सिक्ख लोग ही पंजाबी भाषा में जुड़े हुए हैं। अन्य पंजाबियों ने स्वयं को हिंदी परिवेश के अनुकूल ढाल लिया है। जहाँ तक दिल्ली का प्रश्न है, पंजाबियों के बाद कश्मीरियों तथा सिंधियों ने हिंदी स्थिति के साथ पूर्ण मेल बना लिया है। दिल्ली में प्रायः सभी तमिल भाषी और बंगाली शिक्षित हैं। उनका भाषागत जीवन त्रिभुजीय है।
लेख के अंत में तोमियो मिजोकामी निष्कर्ष के रूप में कहते है कि हिंदी क्षेत्र की भाषा समस्या के लिए मुझे कुछ समाधान भी सुझाने चाहिए. वर्ग 'ग' और 'घ' को वर्ग 'का' की ओर बढ़ना चाहिए। उसके लिए उन्हें अपने अंग्रेजी ज्ञान को नहीं छोड़ना चाहिए अपितु उन्हें भारत के साथ अपनी पहचान स्थापित करने के लिए केवल साहित्यिक हिंदी का पर्याप्त ज्ञान अर्जित करना होगा। वर्ग 'ङ' तथा वर्ग 'च' के लिए शिक्षा तथा संस्कृति के मान में वृद्धि के अवसर प्रदान करने चाहिए। उनका वर्ग 'क' अथवा 'ख' में स्थानांतरण वांछनीय है।
यह पत्रिका हिंदी भाषा और साहित्य के ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में स्वीकार की जा सकती है। इसमें सम्मिलित अन्य लेखकों में नोरिहिको उचिदा, यूसुके ओहिरा, ताकाको सुगानुमा, शिगेओ अराकि, रेयोको कोजिमा, तामाकि मात्सुओका, आकिरा ताकाहाशि, मिकि कावामुरा, एदेरा कोदामा, यूइचिरो मिकि, महेंद्र साइजी माकिनो, माकातो फुजिवारा, चिहिरो तानाका, आकिओ ताकामुरा आदि के लेख काफी पठनीय है। योशियाकि सुजुकि ने अपने दम-ख़म पर इसे निकाला। पत्रिका के सभी जापानी लेखकों ने हिंदी और भारत के विषय में जो कुछ लिखा उससे आप यह जान सकते हैं कि ये लोग हिंदी भाषा और भारत से कितना लगाव रखते है। इसलिए इनकी नजरों से हमारा दिखावटी हिंदी भाषा प्रेम छुप नहीं पता। यह पत्रिका साहित्यिक पत्रकारिता का आदर्श भी मानी जा सकती है। जरूरी नहीं कि आप दस-बीस साल पत्रिका को प्रकाशित करते ही रहे। अपना बहुत कुछ सर्वोच्च या सर्वोत्तम देकर किसी एक विशिष्ट स्थान पर ठहर जाना भी बड़ी उपलब्धि है। भारत में साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आई हुई है। हर दूसरा लेखक,कवि और प्रोफेसर पत्रिका का संपादक है। क्या पढ़े, किसे पढ़े, कब पढ़े और क्यों पढ़े कुछ समझ में नहीं आता।
दिनांक : 05/09/2024
शिक्षक दिवस : मैं आजतक यह नहीं समझ पाया कि शिक्षकों में से कुछ लोगों को चुनकर प्रतिवर्ष राज्य और केंद्र की ओर से आदर्श शिक्षक पुरस्कार क्यों दिए जाते हैं? इससे शिक्षा क्षेत्र को क्या फायदा होता है और कौनसा विशेष आदर्श स्थापित करने की कोशिश की जाती है? ज्यादातर ऐसे शिक्षकों को यह पुरस्कार मिलते हैं जिनकी शिक्षा को लेकर कोई मौलिक उपलब्धि नहीं है। ऐसे अधिकतर शिक्षक किसी न किसी प्रकार का जुगाड़ या राजनीतिक सिफारिश से यह पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं.कमाल के तलवेचाटू लोग होते हैं यह। मेरे नजर में जो कुछ आदर्श शिक्षक पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों का वास्तविक चरित्र सामने आया तो मैं दंग रह गया और काफी दुख भी हुआ.अभी कुछ दिनों पूर्व मेरे क्षेत्र में जो शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव संपन्न हुए उसमें एक उम्मीदवार की ओर से शिक्षकों को वोट देने के बदले में कुछ रकम और उपहार इन्हीं आदर्श शिक्षक महोदय के घर से वितरित किए गए. इस आदर्श शिक्षक महोदय ने अपने कई शिक्षक मित्रों को फोन कर उपहार और रकम ले जाने के लिए फोन कर प्रेरित किया। कुछ वर्षों पूर्व जब स्थानीय नगर परिषद के चुनाव थे तो यही शिक्षक मित्र एक उम्मीदवार के साथ मुझे कुछ रकम देने के लिए घर आए थे। स्थानीय शिक्षा संस्थान के संचालकों को बड़ी रकम घुस देकर अपनी पत्नी को लेक्चरर बनवाने में भी यह सफल हुए।
यह जो शिक्षा जगत में आदर्श पुरस्कारों को रेवड़ी के जैसे बाँटने का चलन चल पड़ा है, उसमें अच्छे और उत्तम शिक्षकों की घोर उपेक्षा होती आयी है, इसमें कोई शंका नहीं। शिक्षा संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार में ऐसे शिक्षकों की विशेष भूमिका होती है। अच्छे और सृजनशील अध्यापकों को परेशान करने के मामले में ऐसे कलाकार अध्यापक कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इनकी बड़ी पहुँच होती है। शिक्षा क्षेत्र से संबंधित अनेक प्रकार की समितियों और विशेषकर पाठयक्रम निर्माण समितियों में भी ये तुरंत घुस जाते हैं। पढ़ने-लिखने या मौलिक चिंतन करने के मामले में यह लोग लगभग शून्य होते हैं पर दिखावा कुछ इस प्रकार से करते हैं कि सामान्य लोगों को लगता है कि यह कितने ज्ञानी शिक्षक है। मैंने तो यह भी सुना है कि ऐसे पुरस्कार प्राप्त होने से अध्यापकों को एक या दो वेतनवृद्धियाँ भी मिलती हैं। तो क्यों न ले वे आदर्श शिक्षक पुरस्कार? इस तरह के शिक्षक मूल रूप से फर्जी शिक्षक कहे जा सकते हैं। अच्छा जो लोग इन्हें पुरस्कृत करते हैं वें भी अपने क्षेत्र के फर्जी लोग ही होते हैं। ऐसे शिक्षकों में से कुछ लोग तो बाक़ायदा प्राइवेट ट्यूशन भी लेते हैं। राजनीतिक लोगों के तलवेचाटू होते हैं। वें पढना-लिखना छोड़कर ज्यादातर लोगों से संपर्क बनाने को अधिक महत्व देते हैं और इस मामले में काफी कुशल और सतर्क होते हैं। शिक्षक संगठनों में भी कार्य करते हैं और अपने परिवेश में अपनी धाक जमाने में सफल होते है। देखने में यह अत्यंत सरल, मिलनसार और विनयशील प्रतीत होते हैं पर इनका ज्यादातर फोकस प्रतिष्ठा और पैसा प्राप्त करने में होता है। यह लोग बहुत ही व्यावहारिक, अवसरवादी और महत्वाकांक्षी होते हैं। दिखावा यह करते है कि वे शिक्षा जगत की कितनी चिंता करते हैं पर छद्म रूप में धन और प्रतिष्ठा अर्जित करना ही इनका हेतु होता है। अनेक ऐसे शिक्षक अपनी पत्नी की सहायता से नेटवर्क मार्केटिंग एवं शेयर बाजार के व्यवहारों में सक्रिय होते हैं और समान्य जनों को ठगते हैं। अपना और अपनी उपलब्धियों का नित्य प्रचार करने में लगे रहते हैं।
तो यह मैंने इस आदर्श शिक्षक नामक प्रजाति के कुछ लक्षणों से आपको परिचित कराया. आपके देखने में ऐसे कुछ आए हो तो जरूर बताए. मैं भी एक अध्यापक ही हूँ परंतु मैंने ऊपर जो कुछ लिखा हैं वह इन शिक्षकों से मुझे कुछ ईर्ष्या है इस कारण से नहीं लिखा. केवल मेरे निजी अनुभवों को और आकलनों को आधार बनाकर लिखा है. हो सकता है यह पुरस्कार कुछ अच्छे शिक्षकों भी मिला हो पर वह अपवाद स्वरुप है. पर यह भी सच है कि मेरे देखने में अभी तक ऐसा शिक्षक तो नहीं आया जो सच्चा और ईमानदार शिक्षक हो और जिसे शिक्षक पुरस्कार मिला हो. ज्यादातर पुरस्कारप्राप्त शिक्षक पाखंडी,स्वार्थी और दोगले चरित्र के ही हैं. ऐसे शिक्षकों को आदर्श कैसे कहा जा सकता हैं? पर दुर्भाग्य से यह आदर्श ही नहीं बल्कि शिक्षा क्षेत्र के नायकों के रूप में महिमामंडित हो रहे हैं और फल-फुल रहे हैं. क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे चमकोगिरी,चमचागीरी और बेइमान शिक्षकों की निंदा नहीं होनी चाहिए? मैं तो निंदा करता हूँ. ऐसे शिक्षक समाज और शिक्षा क्षेत्र पर कलंक ही है ऐसा मैं मानता हूँ.
दिनांक : 07/09/2024
सबसे अच्छा और उत्तम शिक्षक किसे माना जाए? मुझे तो लगता है कि आजकल का सबसे अच्छा और उत्तम शिक्षक वह है जो प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने के लिए मार्गदर्शन करता हो। NEET/JEE आदि परीक्षाओं में सर्वोच्च वरीयता श्रेणी में उत्तीर्ण होने में मदद करता हो यानी इसके कौशल सिखाता हो अर्थात अच्छी कोचिंग करता हो.फिर चाहे इसके लिए कितना भी शुल्क वह वसूले इससे हमें कोई फर्क़ नहीं पड़ता। बिना किसी कठिनाई के पीएच.डी. पूरी करवा देता हो और यदि हो सकें तो अपनी पहुँच से कॉलेजों या विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक की नौकरी दिलवाने में भी काम आ सकें तो वही अच्छा और आदर्श शिक्षक है। उसका चरित्र क्या है,कैसा है? इससे हमें कोई मतलब नहीं, बस किसी भी तरह से हमारा काम करवा दे वही अच्छा शिक्षक है। किसी भी तरह से सफल होना ही आजकल की शिक्षा का लक्ष्य है। आप यदि सफल नहीं हुए तो आपकी प्राप्त शिक्षा व्यर्थ है। फिर भले ही आप कितने भी अच्छे, सुयोग्य और प्रामाणिक मनुष्य क्यों न बने हो। IIT,MBBS, IAS, IPS, IFS, IRS या कोई अच्छी और आराम की और प्रतिष्ठा युक्त सरकारी नौकरी आप प्राप्त नहीं कर सके तो आपकी शिक्षा और शिक्षण पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। हमारे देश में उत्तम शिक्षा और शिक्षक की जो नयी अवधारणा विकसित हुई है वह चिंताजनक है।
दिनांक : 08/09/2024
कुछ दो/तीन वर्ष पूर्व की ही बात होगी। नगर के एक बड़े ज्वेलर्स की दुकान से शिक्षक दिवस के पूर्व मुझे फोन आया था। इस ज्वेलर्स की कई नगरों में शाखाएँ है। फोन एक भद्र महिला द्वारा किया गया था। उसने मुझे निवेदन किया कि वे शिक्षक दिवस के अवसर पर मेरा सम्मान करना चाहते हैं। मेरे साथ अन्य कई शिक्षकों का भी समारोहपूर्वक सम्मान किया जाएगा। मुझे याद नहीं कि मैंने उनसे क्या विस्तृत बात की पर मैंने सम्मान ग्रहण करना अस्वीकार किया और यह पूछा कि मेरे बारे में आप क्या जानते हैं? मैं कौनसा विषय पढ़ाता हूँ, आदि। उन्हें कुछ पता नहीं था। वास्तव में उनकी वाणी में सम्मान का कोई विशेष भाव नहीं था और न मेरा परिचय. मुझे लगा कि एक मार्केटिंग स्टंट के रूप में वे इस अवसर को भुनाना चाहते थे। यदि मैं कहता कि आपको मेरी यह किताबें खरीदनी होगी तो? लेकिन मुझे खुद इस तरह अपना मार्केटिंग करना ठीक नहीं लगा। उन्होंने काफी आग्रह किया और आश्चर्य भी व्यक्त किया कि मैं पहला ऐसा शिक्षक हूँ जो उनका यह सम्मान नहीं ग्रहण कर रहा है पर मैंने कहा कि नहीं।
आज एक स्थानीय अखबार में खबर पढ़ी कि उन्होंने नगर में कार्यरत कुछ निजी कोचिंग क्लासेस के संचालकों का कि जो बाक़ायदा शिक्षक भी होते हैं, शिक्षक दिवस के अवसर पर सम्मान किया। आजकल मैं इसतरह से शिक्षकों को पुरस्कृत करने का जो प्रचलन बढ़ता हुआ देखता हूँ तो समझ नहीं पाता हूँ कि यह किस तरह का सम्मान है। सम्मान दिखावे या प्रदर्शन की चीज़ तो नहीं है।
दिनांक : 14/09/2024
हिंदी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गर्भ से उत्पन्न भाषा है। वह लोक और लोकतंत्र की भाषा है.वह संघर्ष से उत्पन्न भाषा है। भारत की कोई भी भाषा इसतरह संघर्ष से उत्पन्न भाषा नहीं है। वह साधु-संतों, किसानों, मजदूरों, सिपाहियों और स्वतंत्रता सेनानियों की भाषा है। हिंदी कायरों की भाषा नहीं है इसलिए वह भारत का प्राण है और भारत का ब्रांड है। हिंदी को खतरा सिर्फ अँग्रेजी भाषा में पढ़े-लिखे अभिजात वर्ग के भारतीयों से है। ऐसे भारतीय जो भाषा के द्वारा धन और प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं और शानो-शौकत से जीना चाहते हैं। जब तक हिंदी लोक के कंठ-कंठ में बसी हुई है तब तक उसे कोई पराजित नहीं कर सकता। सरकार कोई भी हो, हिंदी के लिए विशेष कुछ नहीं कर सकती। हिंदी का दुर्भाग्य केवल इतना है कि महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, काका कालेलकर जैसे कर्मठ हिंदी प्रेमी आज दिखाई नहीं देते।
दिनांक : 16/09/2024
अँग्रेजी, तूने हम सब को बिगाड़ा : आज प्रात: मेरे एक वरिष्ठ मित्र राजेंद्रसिंह गहलोत ने अपनी फेसबुक वाल पर एक पोस्ट लिखी जिसमें उन्होंने अपने बचपन में सुनी एक काव्यपंक्ति को उद्धृत किया जो इस प्रकार है--
"हिंदी की चिंदी, उर्दू का नगाड़ा,
धत तेरी इंग्लिश, तूने सबको बिगाड़ा।"
यह पंक्तियाँ संभवतः स्वतंत्रतापूर्व कालखंड की है जो उस समय की हिंदी की दुर्गति, उर्दू के प्रति आग्रह और अँग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व पर भाष्य करती है। आप कुछ भी कहे पर भारत देश में जिस तरह अँग्रेजी का व्यापक प्रचार-प्रसार हो चुका है और लगभग देश की प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक का माध्यम अँग्रेजी बन चुकी है तब यह प्रश्न अनिवार्य रूप से उपस्थित होता है कि क्या अँग्रेजी भाषा ने हमारे भविष्य को अपने कब्जे में ले लिया है? क्या अँग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने के कारण हम सचमुच में सुधर चुके हैं और पर्याप्त प्रगति कर चुके हैं? यदि अँग्रेजी भाषा नहीं होती तो क्या हम अच्छे से पढ़-लिख नहीं पाते? अनपढ़ और मूर्ख ही रह जाते? क्या अँग्रेजी शिक्षा के बिना हमारी शिक्षाव्यवस्था अधूरी है? हम देश में अँग्रेजी के बिना पढ़ने-लिखने की कल्पना तक नहीं कर सकते। हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि संसार की उत्तम और वैज्ञानिक भाषाओं के होते हुए भी हम अँग्रेजी भाषा में लिखते-पढ़ते हैं और उसके बिना जैसे हमारा पढना-लिखना व्यर्थ है। देखिए, अँग्रेजी न हम अपने घर में बोलते हैं न आपस में बोलते हैं। फिर भी हम अँग्रेजी में पढ़ना अपने लिए गौरव का विषय क्यों समझते हैं? जिसे अँग्रेजी बोलना आती है ऐसे व्यक्ति को झट से हम अपने से श्रेष्ठ और ऊँचा समझने लगते हैं। क्या इससे स्पष्ट नहीं है कि हम बहुत ही बुरी तरह से अपनी भाषाओं के बारे में हीनभावना से ग्रस्त हैं। मेरे बच्चे जिस स्थानीय स्कूल में पढ़ते हैं वहाँ के अध्यापकों को अँग्रेजी में वार्तालाप करना अनिवार्य कर दिया गया। एक बार जब मैं बच्चों के स्कूल का शुल्क भरने गया था तो उस समय स्कूल के प्रिंसिपल कोई घोषणा अँग्रेजी में दे रहे थे जो सभी कक्षाओं में लाउडस्पीकर के द्वारा सुनायी दे रही थी। यदि कोई शिक्षक हिंदी का है तो भी उसके लिए प्रिंसिपल और अन्य शिक्षकों से अँग्रेजी में बातचीत करना अनिवार्य कर दिया गया हैं। यह कितनी शर्म और संताप की बात है। नहीं? हमें वास्तव में हमारे देश के प्राइवेट स्कूलों के अंदरूनी हालातों की जानकारी ही नहीं है। मुझे भी अपने बच्चों के कारण ही पता चलता है। मेरी बेटी को संस्कृत पढ़ानेवाली अध्यापिका अँग्रेजी में अनुवाद कर संस्कृत पढ़ाती हैं और वह मैथ की अध्यापिका है। मैं इस स्कूल को 'विद्यालय' क्यों नहीं कह रहा हूँ। इसके पीछे की भावना आप समझ सकते हैं। मेरे कुछ छात्र सी.बी.इस.ई. बोर्ड के प्राइवेट और निवासी स्कूलों में हिंदी पढ़ाते हैं और अँग्रेजी के ज्ञान की कमी को लेकर अपमानित होते रहते हैं। हिंदी के अध्यापक होने के नाते उन्हें अन्य अध्यापकों से कम वेतन दिया जाता हैं और अनेक स्तरों पर प्रताड़ित किया जाता हैं। केवल नाम के लिए स्कूलों में हिंदी दिवस मनाया जाता है।
भारत में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के भी यही हाल हैं. जेएनयू में अँग्रेजी वार्तालाप सर्वविदित है. मेरे महाविद्यालय में एक विज्ञान के प्राध्यापक है जिनसे मैंने कुछ दिनों पूर्व संबंध खत्म कर दिए हैं कमाल का जाहिल आदमी लगा वह मुझे. वह अँग्रेजी में बोलने को अपनी शान समझता था. यद्यपि उसकी अँग्रेजी मुझे काफी खराब लगी. एक बार मैंने तीन-चार प्राध्यापकों के समक्ष उसकी अँग्रेजी की खबर ली तो बहुत नाराज हो गए और हिंदी मे मराठी के शब्दों को मिलाकर बोलते हुए हिंदी का मजाक उड़ाने लगे.मैंने एक तरह से उनकी प्राप्त शिक्षा पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया और इस संबंध के टूटने का मुझे बिलकुल दुःख नहीं है. यह किस्सा मैंने इसलिए कहा कि पूरे भारत का ही ऐसा हाल हैं. अँग्रेजी ठीक से आती नहीं और बोलने की जरूरत भी नहीं तब भी लोग जानबूझकर अँग्रेजी बोलते हैं. क्यों बोलते हैं? अँग्रेजी के प्रति यह हमारा कट्टर प्रेम विश्व में भी आलोचना का विषय बना हैं.एक समय जे.बी. कृपलानी ने कहा था कि अँग्रेजी इंग्लैंड से खत्म हो सकती है लेकिन भारत से नहीं.
स्वतंत्रता के बाद हिंदी ही नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं के लिए भी विशेष कुछ काम नहीं हुआ बल्कि उनकी अधिक दुर्गति हुई है विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में। भारत में लगभग सभी स्तरों पर अँग्रेजी में दी और ली जानेवाली शिक्षा तो बहुत गंभीर समस्या हैं। लोगों को लगता हैं कि यदि वें अँग्रेजी में नहीं पढ़ेंगे तो पिछड जायेंगे। भारत की सामाजिक संरचना ही ऊँच-नीच के भेदभाव पर आधारित हैं। इसमें भाषा भी आग में तेल डालने का काम करती हैं। जन्म किस जाति में लिया से लेकर किस भाषा के हो और बोलते हो से लेकर यह मानसिकता कार्य करती हैं. अच्छे-अच्छे प्रतिभाशाली बालकों का अँग्रेजी के कारण भविष्य खतरे में पड जाता है। आजकल आप यदि निजी स्कूलों के नाम देखेंगे तो अधिकांश अँग्रेजी में ही मिलेंगे और वह भी इंटरनेशनल स्कूल। राष्ट्रीय विद्यालय या नैशनल स्कूल कहने में उन्हें किस बात की कमी महसूस होती है पता नहीं? दूकानों के नाम, अधिकांश विज्ञापन आपको अँग्रेजी में मिलेंगे। इधर मैं देखता हूँ कि लोग कचहरियों में मराठी में काम करते हैं, समाचारपत्र मराठी के पढ़ते हैं पर स्कूलों में अँग्रेजी में पढना चाहते हैं। भाषण मराठी में देते हैं, बाज़ारों में लेनदेन और बातचीत मराठी में करते हैं पर आपना नाम लिखना और हस्ताक्षर अँग्रेजी में करते हैं। आवेदन मराठी में होगा और हस्ताक्षर अँग्रेजी में। क्यों? भाषा के प्रयोग को लेकर कमाल के विरोधाभास इस देश में देखने को मिलते हैं. जरूरत हैं भारत के शिक्षा व्यवस्था में शीघ्र बदलाव और सुधार करने की। नयी शिक्षा नीति में भाषा को लेकर कुछ पहल तो हुई है पर मुझे नहीं लगता कि उससे कुछ विशेष हाथ लगेगा। उच्चशिक्षा में विषयों का वर्गीकरण पाश्चात्य शिक्षा पद्धतियों के आधार पर किया गया जैसे मेजर, माइनर, ओपन आदि। क्यों? क्या हम अपनी भारतीय प्रणाली के अनुसार नहीं कर सकते थे?
दिनांक : 18/09/2024
जब भी गणेश चतुर्थी यानी गणेशोत्सव की तिथि निकट आ जाती है तो मैं अपने अंतर्जगत में ही बहुत दुःखी, अन्यमनस्क और व्यथित हो जाता हूँ। वह इसलिए कि जिन गणेश मूर्तियों की अब घर-घर स्थापना और पूजा-अर्चना होगी उनका ग्यारहवे दिन जिस प्रकार अंत होगा, वह मैं प्रभु कैसे देख सकूँगा? नदी, नालों, तालाबो के किनारों पर टूटी-फूटी और विद्रुप हुई उन सुंदर मूर्तियों को देखकर प्रभु मैं अपने घर कैसे लौट सकूँगा और कैसे भोजन कर सकूँगा? मुझसे भगवान गणेश की यह दुर्गति नहीं देखी जा सकेगी। मैं गणेश जी के लिए कुछ भी करने में असहाय और असमर्थ हूँ। क्या समस्त हिंदू इसप्रकार गणेश जी की हो रही अवहेलना और विडम्बना को बिलकुल महसूस नहीं करते? क्या हमें नहीं लगता कि हम बहुत कुछ गलत और अशोभनीय कृत्य कर रहे हैं? जिस प्रकार हमने गणेश का स्वागत किया और पवित्र भाव से उनकी अपने-अपने घर सेवा की क्या हम वही लोग है? हम गणेश जी को ज्ञान की देवता मानते हैं और लगभग हमारे सभी पूजा-अनुष्ठानों में गणेश जी की पूजा को प्रथम मान-सम्मान दिया जाता है और जिन्हें हम अपने लिए शुभ यानी सुख प्रदान करने वाले और दुःख का हरण करने वाले देवता मानते है तो क्या हम वास्तव में वही लोग है। ब़ड़ा अच्छा शब्द दिया गया है--'विसर्जन' यानी उनका सम्मानसहित त्याग करना यानी विदा देना। यह कैसे सम्मानसहित हो सकता है? मूर्ति के पानी में विलीन होने को ही सम्मानसहित विदाई माना जा सकता है पर मूर्ति तो विलीन हुई ही नहीं! मूर्ति जिस मिट्टी से बनी हुई थी वह मिट्टी गली ही नहीं। मूर्ति तो मिट्टी की बनी ही नहीं है। मूर्ति खंडित होकर यानी टुकडों-टुकडों में किनारों पर बिखरी पडी है। वह पानी में पिघलती ही नहीं है। किनारों पर गंदगी के बीच पड़े मूर्ति के अवशेष देखने पर ऐसे लगता हैं जैसे हम किसी दुर्घटनास्थल को देख रहे हैं, जहाँ भगवान गणेश के अंग-प्रत्यंग कटकर बिखरे पडे हैं और ऐसा दृष्य देखने में अत्यंत वीभत्स और असहनीय प्रतीत हो रहा है। जब मूर्ति पानी में विलीन ही नहीं हो सकती तो उसका विसर्जन हुआ कैसे? इन समस्त मूढ़ हिंदुओं की आँखें क्यों नहीं खुलती? उन्हें क्यों नहीं समझ में आता कि हम अपने आराध्य देवता का अपमान ही कर रहे हैं। उनकी दुर्गति कर रहे हैं और अन्य धर्मों के समक्ष निंदा का विषय बन रहे हैं। बुलडोजर से भगवान गणेश के अंग-उपांगो को इकट्ठा करते हुए देखना मुझे बहुत-बहुत ही बुरा लगा। क्या आपको नहीं लगता? जब घर का बर्तन भी कभी टूट जाता है तो हमें दुःख होता है। ठीक है कि हम उत्सव मना रहे हैं पर हमें यह भी तो होश नहीं रहा हैं कि हम जो कर रहे हैं वह हमारी आस्था और पूजा पद्धति का कभी हिस्सा नहीं रहा हैं। कभी विषय नहीं रहा हैं। नाच-गाना और हुड़दंग कहाँ से हमारी भक्तिभावना का अंग हो चुके हैं?
हिंदू धर्म को दिशा देनेवाला ही मुझे आज कोई दिखाई नहीं दे रहा हैं। जिसके मन में जैसा आ रहा है, वैसा वह कर रहा हैं। समाज के जागरुक व्यक्तित्व आज कहाँ लुप्त हो चुके हैं? कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। ऐसे उत्सवों को लेकर हिंदुओं को शीघ्र जागने और सुव्यवस्थित दिशा में धर्म को दिशा देने की आवश्यकता है, ऐसा मैं समझता हूँ। पीओपी से बनी मूर्तियों पर उसी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए जैसे गांजा, चरस और अन्य नशे की वस्तुओं पर लगाया जाता है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वैसे हिंदू धर्म में अब भी बड़े नवजागरण की संभावना बरकरार है।
--डॉ कुबेर कुमावत
महाराष्ट्र, भारत
ई-मेल: kuberkumawat72@gmail.com