तमिलनाडु के तिरुच्ची जिले में एक वैष्णव रहते थे। उनकी सोलह संतानें थीं। श्रीरंगम मंदिर में जब भी प्रसाद बांटा जाता था, वे पहले आकर खड़े हो जाते थे। केवल अपने लिए नहीं, अपने संपूर्ण परिवार के लिए प्रसाद मांगते थे।
भगवान की प्रतिदिन सेवा करने वाले अनेक सेवक जब एक कण प्रसाद पाने के लिए भी तरसते थे, तब इन महाशय द्वारा बिना सेवा किए ही अधिक से अधिक प्रसाद मांगने की बात, हर किसी को खटकती। मंदिर के पुजारी चिल्ला-चिल्लाकर इनको भगाने के लिए प्रतिदिन शोर मचाते थे।
एक दिन ये अपने सोलह बच्चों को भी अपने साथ ले आए और कतार में खड़े हो गए। मंदिर के सेवक जब इनको भगा रहे थे संत रामानुज ने देख लिया।
उन्होंने उस वैष्णव को अपने पास बुलाया और कहा,‘‘यदि आप भी मंदिर में कुछ सेवा करके प्रसाद लें तो किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती।’’
इस पर उस वैष्णव ने संत रामानुज से पूछा, ‘‘मैंने वेद पाठ की शिक्षा-दीक्षा नहीं ली, दिव्य प्रबंध भी मैं नहीं जानता, अतः पारायण करती गोष्ठी के संग मैं नहीं जुड़ सकता। मुझे विष्णु सहस्रनाम की चंद पंक्तियां ही याद हैं तो मैं अपने सोलह बच्चों का पेट कैसे पालूं?’’
इसपर संत रामानुज ने कहा,‘‘आपको विष्णु सहस्रनाम जितना याद है, उसका पाठ करें, मैं भी सुनूं।’’ उस वैष्णव ने शुरू किया,‘‘विश्वम् विष्णुर्वशट्कारो, भूतभृत्...... और आगे न कह पाकर भगवान के छटे नाम पर रुक गए। दो-तीन बार कोशिश करने पर भी जब उन्हें आगे का मंत्र याद नहीं आया तो वे क्षमा-याचना करते हुए रामानुज के चरणों में गिर पड़े। संत रामानुज को उस गरीब व्यक्ति पर दया आई और कहने लगे, ‘‘भूतभृत् तो आपको आता है, इसलिए आप केवल ‘भूतभृते नमः’ का जाप करते रहिए। आप देखेंगे कि भोजन आपके पास आ पहुंचेगा, आपको उसकी खोज में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’
अगले दिन से वे मंदिर नहीं गए। जब संत रामानुज ने उनके बारे में पूछताछ की तो मंदिर के सेवक बड़ी लापरवाही से कहने लगे कि अन्य कहीं अन्नदान हुआ होगा और वे वहीं गए होंगे। उस दिन से मंदिर में एक अनोखी ढंग की चोरी होने लगी। भगवान को समर्पित नैवेद्य का एक भाग प्रतिदिन गायब होता जा रहा था। इतने सेवकों की उपस्थिति के बावजूद वह चोर पकड़ा न जा सका। यह सूचना संत रामानुज के कानों तक पहुंची। उन्होंने पूछा,‘‘यह कब से हो रहा है?’’
सेवकों ने कहा,‘‘जब से आपने उस वैष्णव को मंदिर न आने की बात कही थी। शायद आपकी वह बात और उस वैष्णव में कोई संबंध हो!’’
‘‘वह वैष्णव कहाँ है, ढूंढो!’’ संत रामानुज ने आज्ञा दी। मंदिर के सेवक उसकी खोज में निकल पड़े।
कुछ दिनों बाद कोळ्ळिड़म नामक नदी के उत्तरी तट पर जब संत रामानुज पहुंचे तो उन्होंने उस वैष्णव को अपनी सोलह संतानों सहित सकुशल एक पेड़ के नीचे बसे हुए पाया।
संत रामानुज को देखते ही वह वैष्णव भागते हुए आए और उनके चरणों में गिरते हुए बोले,‘‘स्वामी! एक लड़का प्रतिदिन दो बार मुझे ढूंढता हुआ आता है और मुझे मंदिर का प्रसाद सौंप जाता है। मैं भी ‘भूतभृते नमः’ का जाप प्रतिदिन करता हूं।’’
‘‘कौन-सा लड़का?’’ संत रामानुज ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
‘‘उसने अपना नाम रामानुजदास बताया था’।‘ उस गरीब व्यक्ति ने कहा।
‘‘मंदिर के समीप रहकर मैं किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहता था, इसलिए काफी दूर इस पेड़ की छांव में बस गया। आपकी पैनी दृष्टि यहां तक भी पहुंच गई। आपके आशीर्वाद से मुझे लगातार प्रसाद पहुंच रहा है।’’ उसने कृतिज्ञता जतायी।
संत रामानुज समझ गए कि स्वयं भगवान रंगनाथ ही एक बालक के रूप में जाकर प्रसाद सौंपते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘…पर मैंने किसी को नहीं भेजा। भगवान के ‘भूतभृत्’ नाम का अर्थ होता है सभी जीव-जंतुओं को खिलानेवाला। इस नाम के जाप के कारण ही भूतभृत् बने भगवान ने स्वयं आपको पौष्टिक भोजन प्रदानकर अच्छे स्वास्थ्य के साथ रखा हुआ है।’’ यह कहते हुए संत रामानुज भावविभोर हो गए और उनकी आँखों से आनंद के आँसू बह निकले।
इस कहानी से हम नाम की महिमा से अवगत होते हैं। दरिद्रता से मुक्ति पाने के लिए आइए हम भी इसका जाप करें! जय रंगनाथ!
-डॉ जमुना कृष्णराज, चन्नई, भारत
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