देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

रमेशचन्द्र शाह के उपन्यास गोबरगणेश में प्रकृति और नियति की प्रासंगिकता (विविध)

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Author: डॉ कृपा शंकर 

सारांश- मानव जीवन का संबंध प्रकृति और नियति की प्रासंगिकता से है। जो समय-समय पर मनुष्य को विभिन्न प्रकार की संवेदनाऐं देती है। मनुष्य इस संवेदनाओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार के सृजन और रचना करता है जो उसकी जीवन की प्रकृति और नियति बन जाती है। 

पिछले कुछ वर्षों में बालक की जिन्दगी को आधार बनाकर कई विशिष्ट वयस्क उपन्यास हिन्दी में लिखे गये हैं। मन्नू भंडारी के आपका बंटी में बालक की मानसिकता के सहारे उसके माता-पिता के आपसी सम्बन्धों की प्रकृति और नियति को परिभाषित करने की कोशिश है। निर्मल वर्मा के लाल टीन की छत में बचपन की देहरी लाँघकर किशोर दुनिया में प्रवेश करती हुई एक बच्ची के अनुभव जगत का, उसकी निष्छलता, सहज जिज्ञासा और कुतूहल तथा आंतरिक छटपटाहट, यातना और अकेलेपन का अन्वेषण है। हाल ही में प्रकाशित रमेश चन्द्र शाह के गोबरगणेश के केन्द्र में भी एक बालक ही है।

इनसे भी पहले तीसी में अज्ञेय के शेखर एक जीवनी और पचासे में कृष्ण बलदेव वैद के उसका बचपन का भी जिक्र किया जा सकता है। इनमें भी जहां शेखर एक जीवनी का फलक बचपन से वयस्क कर्मशील जीवन को घेरता है, वहीं उसका बचपन में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के एक बच्चे की मानसिकता, उसके परिवेश और इन दोनों के बीच सम्बन्धों और तनावों की सूक्ष्म संवेदनशील पड़ताल है।

बीज शब्द- प्रासंगिकता, नियति, संवेदनाओं, माध्यम, प्रकृति, विशिष्ट, वयस्क, परिभाषित, सम्बन्धों, निष्छलता, मानसिकता, अभिव्यक्ति, अन्तर्निहित, सामंजस्य।

इन सभी उपन्यासों में बालक को केन्द्र में रखने का कारण उनमें प्रस्तुत विशिष्ट अनुभव की अपनी जरूरत के अलावा किसी भिन्न उपन्यास रूप की तलाश भी किसी हद तक जाहिर होती है जो कई प्रकार से समकालीन हिन्दी उपन्यास की बड़ी जरूरत रही है यह तलाश ऐसे दृष्टि बिन्दु के लिए हो सकती है जो उस अनुभव को देखने और आंकने में मददगार हो, जैसे आपका बंटी में या फिर दृश्य परिदृश्य यथार्थ में अन्तर्निहित जीवन सत्य की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के लिए हो सकती है, जैसे उसका बचपन और लालटीन की छत में। इन सभी उपन्यासों में कथ्य और रूप में एक तरह का सामंजस्य है और अपने-अपने ढंग से उपन्यास-रूप के इस्तेमाल में नयी उपज के सबूत भी मिलते है। कुछ घटनाएँ, कुछ प्रतिक्रियाएँ, कुछ ऊहापोह, कुछ ऐसे अध्ययन-प्रसंग या चिंतन-प्रसंग जो चूंकि अपने लिए रोचक और सार्थक थे।  

आपका बंटी में बीच-बीच में बंटी की बजाय उसकी ममी का दृष्टि-बिन्दु फोकस में आ जाता है और इस प्रकार एक तरह का समक्षीकरण पैदा होता है जो उपन्यास के वक्तव्य को अधिक समग्र तीखा और बहुआयामी बना देता है बल्कि शायद बहुत थोड़ी देर प्रत्यक्ष रहने के बावजूद, मूल दृष्टि-बिन्दु बंटी की ममी का ही है। बंटी के दृष्टि-बिन्दु पर लगातार बल दिये जाने के कारण और भी तीव्रता और प्रबलता से उभर सका है। 

उसका बचपन और लालटीन की छत दोनों में दृष्टि-बिन्दु केवल बच्चे का ही है। पर उसका बचपन में प्रायः एक ही बालक बीरू की अपने चारों तरफ की जिन्दगी के बारे में प्रतिक्रियाओं को एक तरह की काव्यात्मक बुनावट और गतिलय के साथ रखकर निम्न मध्यवर्गीय परिवेश की आर्थिक, साँस्कृतिक विपन्नता और पारस्परिक सम्बन्धों की क्षुद्रता तथा ओछेपन को उजागर किया गया है। इससे भिन्न लाल टीन की छत में एक से अधिक बच्चे हैं- काया, वीरू, गिन्ना, लामा और यद्यपि मुख्य दृष्टि केन्द्र काया पर ही है, मगर दूसरे बच्चों की प्रतिक्रियाओं के स्तर से काया की अपनी असामान्य संवेदनशीलता रेखांकित होती है और बाल प्रतिक्रियाओं की कईएक सतहें जाहिर हो जाती हैं। अन्त में चरम बिन्दु पर काया की ही कुछेक वर्ष बाद की प्रतिक्रिया और परिणति पूरे उपन्यास के वक्तव्य को समन्वित और एकाग्र कर देती है। इन दोनों ही उपन्यासों में एक लंबी कविता की-सी लाक्षणिकता और सघनता है जिसे उनके रूप से विलग नहीं किया जा सकता। यह अकारण ही नहीं कि ये तीनों ही उपन्यास आकार में भी छोटे हैं।

मगर उपन्यास में बालक को लाने का एक और रूपगत उद्देश्य भी हो सकता है- बचपन से बुढ़ापे तक जीवन के फलक को महाकाव्यात्मक विस्तार देने का पश्चिमी साहित्य में इस रूप का अक्सर इस्तेमाल हुआ है, जिसका एक अन्यतम उदाहरण है- रोम्यां रोला का ज्यों क्रिस्तोफ हिन्दी में अज्ञेय के शेखर एक जीवनी में किसी हद तक इसका उपयोग मिलता है। उसका तीसरा खंड अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया, पर प्रकाशित दो खंडों में भी यद्यपि जीवन फलक का आंतरिक विस्तार ही अधिक है बाहरी विस्तार अपेक्षाकृत कम, फिर भी उसमें एक अपने ढंग की संगति मौजूद है और वह असंभव नहीं कि पूरा होने पर वह एक महाकाव्यात्मक आयाम हासिल कर लेता। 

रमेश चन्द्र शाह के गोबर गणेश का उपन्यास-रूप भी किसी हद तक इसी तरह का है। उसमें जीवन फलक बचपन का अतिक्रमण करके वयस्कता तक फैला हुआ है, और बचपन में ही मानसिकता के सूत्रों को पहचानने की कोशिश है जो एक व्यक्ति के वयस्क होने पर उसके जीवन और चरित्र के नियामक हो जाते हैं। उपन्यास के तीन खंड है पहला अन्नजल जो चरितनायक बालक विनायक के बचपन, उसकी प्रारंभिक शिक्षा तथा किशोर प्रतिक्रियाओं आकांक्षाओं को प्रस्तुत करता है। दूसरा, त्रिपार्ष्व और वर्णपट, विनायक के विश्वविद्यालय जीवन और प्रेम-प्रसंग से संबंधित है, और तीसरे, अपने हिस्से का आसमान, में वर्षों बाद उसके अध्यापकीय जीवन का हालचाल है। इस प्रकार बचपन से शुरू करके जवानी के उत्कर्ष तक की जीवन-यात्रा इस उपन्यास का फलक है। जाहिर है इतना बड़ा विस्तार प्रगीतात्मक संवेदन के सहारे नहीं किसी न किसी स्तर की महाकाव्यीय कल्पनाशीलता के बल पर ही निभाया जा सकता है। 
यह किसी पागल के प्रलाप जैसा लग सकता है, पर है नहीं। मुझ पर थोड़ा भरोसा रक्खें-मैं भरोसेमन्द आदमी हूँ, थोड़ा अक्लमन्द भी इतना अक़्लमन्द, कि मुझे अक्सर दूसरों के मन के भीतर चलनेवाली बातें भी साफ़ सुनायी देने लगती हैं-वे दूसरे चाहे मेरे अन्नदाता हों; चाहे दुश्मन। 

मगर ऐसा जान पड़ता है कि गोबरगणेश में संवेदना की प्रकृति और उपन्यास रूप के बीच सामंजस्य नही. सर्जनात्मक तनाव भी नहीं एक तरह का बुनियादी अंतर्विरोध है। गोबरगणेश के लेखक की मूल संवेदना और कल्पनाशीलता प्रतीक्षात्मक ही है जो फैले हुए फलक की जरूरतों के लिए नाकाफी है और कमजोर सिद्ध होती है।

पूरा उपन्यास पढ़ लेने पर यह बात कुछ परेशान करती है, क्योंकि पहले खंड में सचमुच ऐसी सर्जनशीलता से साक्षात्कार होता है जो निश्छल आत्मीयता और सूक्ष्म अंतर्दृष्टि से आकर्षित ओर मुग्ध करती है। दरअसल, गोबरगणेश का जीवंत अंश अन्नजल ही है जो सघन निजी अनुभव, गहरी आंतरिक प्रेरणा और कवि-सुलभ सौंदर्यबोध की उपज जान पड़ता है। यह कुमाऊँ के पहाड़ी प्रदेश में एक साधारण दुकानदार परिवार के संवेदनशील बालक विनायक के बचपन और किशोर जीवन की कथा है, जो मेघावी है और जिसमें शुरू से ही कविता लिखने का रूझान है। 

रमेशचन्द्र शाह ने बड़ी विश्वसनीय सूक्ष्मता से परिवेश के उन अनेक सूत्रों का अन्वेषण किया है जो विनायक के कवि स्वभाव की विभिन्न परतें पैदा करने में योग देते हैं- परिवार, स्कूल, आस पड़ोस से सभी साथी, सामाजिक. सम्बन्ध, रीति रिवाज आदि। पर इन सब में प्रमुख है परिवार उसमें अलग-अलग व्यक्तियों की स्थिति, उनके विशेष स्वभाव, रूचियां मान्यताएं, निजी और सामाजिक आचरण व्यवहार तथा उनके आपसी सम्बन्ध।

विनायक का परिवार बहुत छोटा ही है- माँ. बाबूजी, उसके दो काका मथुर और जगन, बड़ी बहन सरोज और बहुत बाद में काकी, मथुर काका की पत्नी। इनमें भी माँ की उपस्थिति लगभग मूक है। वह एक आम गृहिणी की तरह विन-रात मेहनत करें किसी उग्र प्रतिवाद या मुख असंतोष के बिना इस समय गरीबी से दबे इस परिवार को किसी तरह चलाये जाती है बाबूजी की भी प्रत्यक्ष उपस्थिति बहुत कम है।  
वह गाने-बजाने के शौकीन हैं और अब आजकल साधु सन्यासियों की संगति में वक्त बिताते है। घर-गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं सम्हालते, और आर्थिक दृष्टि से वह और उनका सारा परिवार उनके छोटे भाई यानी मथुर काका की दुकान पर निर्भर है। अपने परिवार की जिम्मेदारी छोटे भाई पर डाल देने के कारण एक तरह की हीनता आत्मग्लानि और असहायता का अनुभव भी करते है विनायक ने अपनी कविता, संगीत में रूचि और एक प्रकार की निष्ठा मूलक आदर्शवादिता तो अपने पिता से पायी ही है. यह हीनता, आत्मग्लानि अपने ऊपर विष्वास की कमी और असहायता की भावना भी उसे शायद उन्हीं से मिली है।

मथुर काका व्यवाहारिक, दुनियादार और दबंग व्यक्ति है, जो परिवार के आर्थिक नियंता होने के कारण उसके सदस्यों के ऊपर कड़ा शासन रखते हैं। उन्हें इन बाप-बेटों की कला प्रियता और दार्शनिकता से और छोटे भाई जगन की आदर्शवादी क्रांतिकारिता से बहुत खीझ और चिढ़ है। बाबूजी की कला प्रियता और मथुर काका की व्यावहारिकता के दो छोरों के बीच घिसटता है विनायक और उसके बुनियादी अंतर्द्वद्व का स्रोत है। 

किसी भी सर्जक के व्यक्तित्व-विकास में उसके परिवेश का, जिसमें वह पला-बढ़ा और जिस तरह के संस्कारों की छाप उसके बाल मन पर पड़ी उनका बुनियादी महत्व होता है। मनोवैज्ञानिकों का मत भी है कि बाल्यकाल में मन पर पड़े संस्कार वयस्क मानव व्यक्तित्व के निर्माण को काफी दूर तक निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं। 

स्वभाव और भीतरी संस्कार से वह पिता जैसा कला प्रेमी मनमौजी है, पर उसकी जिन्दगी चलती है मथुर काका की कमाई के बल पर उनके विचारों और मान्यताओं के अनुसार विनायक उनके हाथों पिटता भी है, उनके फैसले पर उसे स्कूल बदलने पड़ते हैं, आर्ट्स की बजाय साइंस पढ़नी पड़ती है- बीच-बीच में उनकी दुकान पर जाकर तो बैठना ही पड़ता है।

मगर परिवार में विनायक के साथ हमदर्दी रखने वाले दो व्यक्ति और है- जगन काका और सरोज या सरू। जगन काका देश भक्त और क्रांतिकारी हैं, विनायक जब छोटा था तभी वह आजादी की लड़ाई में जेल चले गये थे। वह एक तरह से सारे परिवार, बल्कि पूरे अल्मोड़ा शहर के हीरो हैं, विनायक के तो आदर्श पुरुष हैं ही। उपन्यास के लगभग शुरू में ही वह जेल से घर वापस आ जाते हैं और पहले खंड में, जो उनकी मृत्यु के समाचार से ही समाप्त होता है, जगन काका के साथ विनायक के सम्बन्ध में और लगाव में बड़ी दिलचस्प द्वन्द्वात्मकता है। 

वह सहज और अनिवार्य आकर्षण से उनकी तरफ खिंचता है, उनके जैसा बनना चाहता है. अपनी बालसुलभ इच्छाओं आकंक्षाओं के पूरा होने के लिए उनकी ओर देखता है और उनसे सहारा तथा समर्थन भी पाता है। पर साथ ही उन्हें ठीक से समझ नहीं पाता, और अंततः वह पूरी तरह उसकी पकड़ के बाहर चले जाते हैं- पहले नौकरी के लिए शहर छोड़कर और फिर क्षय रोग से ग्रस्त होकर मृत्यु के कारण। विनायक के लिए जगन काका जैसे एक स्वप्न है जिसे वह कभी यथार्थ नहीं बना पाता। उनकी राजनैतिक सक्रियता उनकी बौद्धिक सजगता और तीखा मानसिक आत्मसंघर्ष, उनकी सर्जनात्मक सफलता सभी कुछ उसके लिए सुदूर लक्ष्य जैसा ही बना रहता है, जहां तक वह पहुंच नहीं सकता।

साथ ही उसके बाल जीवन के कुछेक सब से मार्मिक क्षण जगन काका के साथ ही जुड़े हैं। गोल्ल देवता के मंदिर में युद्ध में बेटे की मृत्यु से शोक विक्षिप्त एक औरत की यंत्रणा, आस्था, असीम मानवीय करूणा और प्यार का हिला देने वाला वर्णन, विनायक और सरोज की उनके साथ कासार देवी की यात्रा और वहां उनकी बाग्दत्ता त्रिपुरसुंदरी जैसी लगने वाली भत्ती दीदी के साथ साक्षात्कार जगन काका की डायरी की अनोखी रहस्यमयी अबूझ दुनिया में विनायक का पहले चोरी-चोरी और फिर बाद में खुल्लमखुल्ला प्रवेश और पड़ाव, अरविंद भक्त जगन काका और कम्युनिस्ट भुवन के बीच तीखी उत्तेजक बहसों में उपस्थिति, होली के अवसर पर एक बैठक में जगन काका का गाना पहले पंत की कविता भारत माता ग्रामवासिनी और फिर पारंपरिक गीत, कोई तो बता दे जल-नीर सिया प्यासी है- ये सब प्रसंग ही उपन्यास के सब से सक्षम और अविस्मरणीय स्थल है। 

हर्ष और विषाद की पराकाष्ठाओं के बीच झूलते इस जीवन का अर्थ क्या है? आदमी अपनी जीवनी या आत्मकथा किस लिए और क्यों लिखना या लिखवाना चाहता है? क्यों वह जीतेजी न केवल अपना सारा हिसाब-किताब चुकता कर जाना चाहता है, बल्कि दुनिया के सामने अपनी एक ऐसी छवि भी आँक जाना चाहता है। 

इसीलिए टीबी से जगन काका की असामयिक मृत्यु विनायक के सपनों की दुनिया के एकदम अचानक वह जाने की सूचक है। अपने बाहरी और आंतरिक परिवेश से निकलने की उसकी सारी जानी अनजानी कोशिशें नाकामयाब हो जाती है। अब वह अपने भीतर एक अटल द्वन्द्व को आजीवन झेलने के लिए अभिशप्त है। जगन काका जैसे उसी के व्यक्तित्व का एक स्तर है जहां उसकी सारी मानसिक नैतिक बौद्धिक छटपटाहट जाहिर भी होती है और एक व्यर्थता के रेगिस्तान में खोती हुई भी दिखाई पड़ती है।

यह आकस्मिक नहीं कि जगन काका के माध्यम से ही उपन्यास या कि उपन्यास का भी? मुख्य बौद्धिक द्वन्द्व भी प्रस्तुत हुआ है। गांधी और मार्क्स, रामकृष्ण परमहंस और लेनिन का समक्षीकरण ही नहीं गांधी से अरविंद तक की बौद्धिक आध्यात्मिक यात्रा हिन्दी लेखकों में नई नहीं है- कई विख्यात कवियों में यह परिणति देखी जा चुकी है। कम्युनिस्ट भवन के साथ संशयग्रस्त, आतंकवादी गांधीवादी अरविन्दवादी जगन की बहसें या जगन काका की डायरी में योग, ध्यान और अतीन्द्रिय आध्यात्मिक अनुभव के यातनाभरे विवरण बालक विनायक के चेतना स्तर से परे होकर भी उसकी मानसिकता को बुनियादी रूप में प्रभावित करते हैं। और अंततः स्वयं जगन काका के भीतर बढ़ता मोह भंग और संशय का भाव विनायक का भी हो ही जाता है।

जगन काका के अलावा, बल्कि उनके साथ ही विनाय के परिवार में एक और महत्वपूर्ण व्यक्ति है, उसकी बड़ी बहन सरोज या सरू जगन काका कहते हैं- इस पर की अंतर आत्मा है, पर वह कुछ अजीब ढंग से शायद इस पूरी कथा की अंतरात्मा है क्योंकि कथा के केन्द्रीय महत्वपूर्ण प्रसंगों में तो वह मौजूद होती रही है। बाकी वक्त भी जैसे वह निरंतर मंडराती ही रहती है।

उपन्यास के पहले खंड में सरू की उम्र शायद तेरह से सत्रह साल के बीच है. यद्यपि यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। पर उसके आचरण, व्यवहार और व्यक्तित्व में ऐसा आत्मसंयम और संतुलन, ऐसी प्रौढ़ता और समझदारी है जो उसकी उम्र से कहीं ज्यादह लगती है, और उसकी छवि एक वयस्क आत्मसजग युवती की ही है। साथ ही उसके स्वभाव में बड़ी सुखद मिठास और व्यक्तित्व में बड़ा सहज अनिवार आकर्षण भी है और जिसके कारण उसकी उपस्थिति, यहां तक की अनुपस्थिति भी पूरा ध्यान खींचती है।

एक प्रसिद्ध आधुनिक कवि का कहना है कि सारी कला अन्ततः एक पलायन ही है सत्य की असह्य ज्वाला से उसी के समकालीन एक दूसरे कवि की उक्ति भी याद आ रही है- ह्यूमनकाइण्ड कैन नॉट वियर बेरी मच रिएलिटी अर्थात आदमी की जात बहुत ज्यादा यथार्थ नहीं झेल सकती दोनों ही इस शताब्दी के दिग्गज कवियों में गिने जाते हैं और यह अकारण नहीं है कि असामान्य भाविक क्षमता वाले लोग ही मनुष्य और उसकी सीमाओं के बारे में इतने नम्र और निर्भ्रान्ति हो पाते हैं। 

जगन काका का सरोज के साथ सम्बन्ध। उसके प्रति उनका भाव एक भतीजी के लिए होने वाले स्नेह से कुछ भिन्न और ज्यादह लगता है। एक जगह यह जिक्र भी है कि वह पहले उन्हें भइया भइया ही कहती थी। वह स्वयं उसके बारे में विनायक से कहते है मेरी कविता तो ये है वह उनकी सबसे अधिक विश्वासपात्र है। उनकी डायरी और अन्य रचनाएं उसी के संरक्षण में हैं।  

उनकी किताबें और अन्य वस्तुएं भी वह उनके सभी रहस्यों की भी एक मात्र साझीदार लगती है- भत्ती के प्रति उनके मनोभाव और लगाव को पूरी तरह केवल वही जानती है, ऐसा महसूस होता है। सरोज भी जगन काका की सुविधा जरूरतों का पूरा ख्याल रखती है और उन्हें सबसे ज्यादह महत्व और प्राथमिकता देती है जगन काका के प्रति भक्ति विनायक की भी कम नहीं, पर सरोज के भाव में कहीं अधिक अनन्यता और गहरी आत्मीयता है जो उसे विशिष्ट बना देता है। बल्कि कई बार वह कुछ इस तरह असामान्य लगता है कि यह पड़ताल करने की जरूरत महसूस होने लगती है कि वह सचमुच विनायक की सगी बहन की है या कोई दूर के रिश्ते कीया मुंहबोली, जो किसी विशेष परिस्थितिवश इस परिवार में रहती है।

संभवतः ऐसा प्रभाव पड़ने का एक कारण यह भी है कि जगन काका, सरू और विनायक के पारस्परक रिश्तों को कुछ विशेष सघनता से रूपायित किया गया है। न केवल विनायक और सरू के बीच जगन काका को लेकर ईर्ष्या के संकेत दिए गये हैं, बल्कि विनायक के मन में सरू के प्रति जगन काका के भाव को लेकर भी खीझ होती है। लो अब जगन काका सरोज के पीछे लग जायेंगे।

ऐसे ही अटपटे ढंग के रिश्ते की ध्वनि विनायक के सपने में दीखने वाले बिम्ब से भी निकलती है। सुनते सुनते विनायक खुली आंखों एक सपना देखने लगा। वह सनकू है- सांकोपांजा और जगन काका डान क्विक्जोट हैं। वे हाथ में तलवार लिये घोड़े की पीठ घर बैठे सरपट भागे जा रहे हैं। पीछे-पीछे टट्टू सवार विनायक दौड़ रहा है। जगन काका का सांकोपांजा और दीदी ? दीदी क्या है? दीदी वह राजकुमारी है, जिनकी रक्षा के लिए 1 डान क्विक्जोट हाथ में तलवार लिये अदृश्य शत्रुओं का पीछा कर रहा है।

अस्पष्ट रूप में ही सही, यह चित्र सरोज और जगन काका के बीच सम्बन्ध सूत्र को कुछ रहस्यमय और असामान्य बना देता है, भले ही लेखक का इरादा वैसा न हो। उपन्यास के ऊपर अज्ञेय के उपन्यास शेखर एक जीवनी की जो कई छायाएं है, सरू का चरित्र भी उनमें से एक है।

विनायक के साथ सरू का सम्बन्ध अधिक सहज रूप में आत्मीय है। परिवार में वह सबसे निकट सरू के ही है जो उसकी एक तरह की अभिभावक भी है और मित्र भी। उसके साथ उसकी ईर्ष्या भी है, होड़ भी है। साथ ही केवल उसी से वह अपना सुख दुख कह सकता है, सच्ची हमदर्दी की उम्मीद कर सकता है। कालेज के दिनों से अपने उस अजीब से प्रेम प्रसंग में वह सरोज की ही सलाह लेता है और अपने निर्णय के लिए उसी पर पूरी तरह निर्भर करता है। जगन काका भी इलाहाबाद जाने के पहले उससेकह जाते है।

मुझसे वादा करो वीनू, कि तुम अब से कभी सरोज का दिल नहीं दुखाओगे। हमेशा उसका कहना मानोगे। और विनायक अंत तक यह वादा निभाता है। दरअसल, अगर विनायक का बौद्धिक जगत जगन काका के विचारों से बना और नियंत्रित है, तो उसकी भावनात्मक दुनिया सरोज के प्यार और अपनेपन से भरीपूरी हैं। अगर जगन काका उसके व्यक्तित्व के बौद्धिक स्तर के प्रतिरूप हैं तो सरू उसके रागात्मक आवेगमूलक स्तर की।

उपन्यास का यह अंश बालक और किशोर विनायक की बाहरी और आंतरिक दुनिया का ग्राफ होने के कारण उसमें विनायक के बहुत से दोस्तों की मौजूदगी भी बड़ी असरदार है। उनके साथ विनायक के खेल कूद, मेल मिलाप, लड़ाई झगड़े, सैर-सपाटे और दूसरे बौद्धिक, साहित्यिक और सामाजिक आयोजनों की बड़ी जीवंत, सधी हुई और विश्वसनीय तस्वीरें लेखक ने खींची है। विनायक के अनेक दोस्त उपन्यास में अपनी अलग पहचान तो बनाते ही है, साथ ही उनके माध्यम से एक उत्तर भारतीय कस्बे के सामाजिक जीवन के अनेक पर्त, अपने बुनियादी अंतर्विरोधों के साथ उद्घाटित हुए हैं जिनकी बहुआयामिता सचमुच प्रभावी है।

विनायक संवेदना के और बौद्धिक स्तर पर अपने को एक स्थानीय राजा के बेटे त्रिभुवन के जितना नजदीक पाता है, सामाजिक साँस्कृतिक स्तर पर उससे उतना ही दूर भी है, जिसके कारण उसका त्रिभुवन के साथ एक बड़ा दिलचस्प दोहरा रिश्ता बनता है। इसी तरह स्वयं उच्च सवर्ण हिन्दू परिवार का होकर भी उसके कुछ बड़े सहृदय, तेज और पक्के दोस्त डोम या मुसलमान हैं। ये सब सम्पर्क जहां विनायक के स्वभाव की स्वस्थ उदारता और मानवीयता को सूचित करते हैं, वहीं समाज के गहरे और बुनियादी अंतर्विरोधों को भी जाहिर करते हैं जिनके बीच से होकर ही हमारा व्यक्तित्व रूप लेता और बनता संवरता है। 

यानी जहां परिवार में, विशेष कर जगन काका और सरू के साथ विनायक के अंतरिक जीवन के रेशे जुड़े हैं, वहीं उसके अपने दोस्तों के साथ सामाजिक जीवन के। शायद अनजाने ही सहज आत्मीय और गहरे परिचय के कारण ही लेखक विनायक को एक जीवंत सक्रिय सामाजिक परिवेश में देख और दिखा सकता है, और उसका अंतर्जगत दैनंदिन जीवन से कट कर हाथी दांत की किसी निजी बन्द मीनार में नहीं गढ़ा गया है। यह आकस्मिक नहीं है कि उपन्यास में विनायक के अपने दोस्तों के साथ, और सरू-जगनकाका के साथ प्रसंग प्रायः बारी-बारी से लगातार गुंथे हुए हैं जिससे एक खास किस्म की लय और गति पूरी संरचना को मिलती है। संभवतः दोनों रेशों की यह सहज विश्वसनीय बुनावट ही इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी है जो उसके पहले अंश को काव्यात्मक संवेदना वाली गद्य रचनाओं की कोटि में रखती है।

रमेश चन्द्र शाह ने गोबरगणेश उपन्यास के माध्यम से पूरे मानव समाज को चितन्य करने का प्रयास किया है। जिसमें जीवन की संवेदनशीलता एवं प्रासंगिकता को दर्शाया हैै। जीवन को प्रमाणिक मानने के लिए मनुश्य को अधिक संघर्ष करना चाहिए तभी उसे जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। गोबरगणेश नामक उपन्यास में जीवनपर्यन्त चेतना प्रभाव को बताया हैै। 

सन्दर्भ सूची
  - रमेशचन्द्र शाह, ‘कठिन समय में’, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2018, पृष्ठ-7
  - विजय कुमार देव, ‘सृजन यात्रा रमेशचन्द्र शाह’, मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल, 2005, पृष्ठ-125
  - विजय कुमार देव, ‘सृजन यात्रा रमेशचन्द्र शाह’, मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल, 2005, पृष्ठ-126
  - रमेशचन्द्र शाह, ‘असबाब-ए-वीरानी’, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2011, पृष्ठ-19
  - रमेशचन्द्र शाह, सृजन यात्रा, पृष्ठ-127
  - माया जोशी, ‘रमेश चन्द्र शाह और उनका रचना संसार’, आधारशीला प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृष्ठ-2
  - रमेश चन्द्र शाह, ‘कथा सनातन’, राजपाल प्रकाश दिल्ली, 2012, पृष्ठ-7
  - रमेश चन्द्र शाह, ‘सबद निरन्तर’, वाग्देवी प्रकाशन, बीमानेर, 1987, पृष्ठ-9
  - रमेशचन्द्र शाह, सृजन यात्रा, पृष्ठ-128


डॉ कृपा शंकर
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