देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

कुत्ते और इंसान

 (विविध) 
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रचनाकार:

 डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

शहर के बीचों-बीच एक बगीचा है, जहां रोज़ सुबह लोग टहलने आते हैं। किसी के हाथ में कुत्ते की रस्सी है, किसी के हाथ में मोबाइल। कुत्ते बेफिक्र घास पर दौड़ रहे हैं, और लोग थके-हारे सांसें ले रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कुत्ते भी इंसान को टहला रहे हों।

अब देखिए, शहर में इंसान की हालत ऐसी हो गई है कि वो अपने खाने-पीने का तो ठीक से ध्यान नहीं रखता, लेकिन उसके कुत्ते की डायट चार्ट डॉक्टर से तय होती है। "बॉबी के लिए विटामिन्स चाहिए," मिसेज शर्मा कहती हैं, "वो थोड़े से कमज़ोर हो रहे हैं।" और साहब, उस बॉबी की हालत तो ऐसी है जैसे फाइव स्टार होटल का मेन्यू खाता हो।

बगल में ही श्री गुप्ता हैं। गुप्ता जी को बुरा लगा, बोले, "देखिए, ये कुत्ता नहीं, मेरे परिवार का हिस्सा है। वो मुझसे भी ज्यादा संवेदनशील है।"

गुप्ता जी के चेहरे पर गौरव था। उन्होंने बताया, "कल बॉबी को पनीर पसंद नहीं आया, तो उसने खा ही नहीं।"

मैं सोच में पड़ गया। कुत्ते अब स्वाद-चयन करने लगे हैं, और इंसान चटनी-रोटी खाकर पेट भर रहा है।

सामने पार्क के दूसरे कोने में रमेश चायवाला खड़ा है, उसकी नजरें उस पर हैं, जिसके पास उसकी रोज़ी-रोटी का इंतजाम है—बिना चाय के तो ये मॉर्निंग वॉकर्स अधूरे हैं। वो बड़ी शान से कहता है, "कुत्ते पालने वालों की दुनिया अलग होती है, भइया। यहाँ मेरे पास तो आदमियों से ज्यादा कुत्ते चाय पीने आते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि इन कुत्तों का एक क्लब बना देना चाहिए।"

कुत्ते अब सिर्फ जानवर नहीं रहे। वो हमारी शान बन चुके हैं। "कुत्ता आदमी का सबसे अच्छा दोस्त है," ये कहावत अब पूरी तरह बदल चुकी है—अब कुत्ता आदमी का बॉस है। जिन घरों में लोग अपने बच्चों को ‘ना’ बोलते हैं, वहां कुत्ते के लिए 'हां' बोलते हैं। "बॉबी को वो खिलाओ, वो लाओ," सब बॉबी के लिए हो रहा है।

कुत्ते की उम्र अब आम आदमी से ज्यादा सम्मान पा रही है। इंसान जब भूखा मरता है तो कहावत बनती है, "अरे भई, गरीब का पेट भरना मुश्किल है।" और जब कुत्ते को खास खाना नहीं मिलता, तो पूरी कॉलोनी में हलचल मच जाती है, "कुत्ता बीमार हो जाएगा।"

इंसान और कुत्ते की ये नई रिश्तेदारी दिलचस्प है। ऐसा लगता है जैसे असल में कुत्ते आज़ादी की असली परिभाषा समझ चुके हैं। वो घास पर दौड़ते हैं, वो जीते हैं और हम सिर्फ उनके लिए जीते हैं।

--डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

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